Wednesday, 3 April 2013

Retirement

रिटायरमेंट....
किसी काम से रिटायर होना यानी सेवानिवृत होना। कितना अटपटा लगता है रिटायर शब्द को सुनकर। सबसे अटपटा तो उसे लगता होगा, जो अपनी जीवन की दो पारियां समाप्त कर तीसरी पारी में प्रवेश करता है। किसी सरकारी सेवा से रिटायर्ड होने पर तो व्यक्ति शायद यह सोचकर खुश होगा कि  फंड व विभिन्न देयों से काफी रकम उसके हाथ में आ जाएगी। व्यक्ति तीसरी पारी की भावी योजनाएं भी बनाने लगता है। हर योजना को वह पैसों से जोड़कर भी देखता है। कुछ पैसों से मकान की मरम्मत कराउंगा या फिर मकान बनाउंगा। बेटी की शादी या फिर खुद के लिए दुकान खोलूंगा या फिर कोई बिजनेस करूंगा आदि-आदि। सबसे ज्यादा अटपटा तो किसी निजी संस्थान से सेवानिवृत होना लगता है। पहले तो प्राइवेट नौकरी करना ही आसान नहीं है। हर साल इंक्रीमेंट के दौरान गर्दन पर तलवार लटकी रहती है। भय यह रहता है कि कहीं इंक्रीमेंट से पहले छंटनी में खुद का नंबर न आ जाए। क्योंकि यह तो दुनियां की रीत है कि ताकतवर को ही कहीं रहने का हक है। कमजोर साबित होने वाले व्यक्ति के लिए शायद कोई जगह नहीं है। ऐसे में काम के प्रति समर्पण की भावना के साथ ही खुद को मजबूती से खड़ा रखने वाला ही बगैर किसी व्यवधान के अपनी नौकरी बचा पाता है।
सरकारी नौकरी में तो जैसे तैसे समय खींच जाता है, लेकिन प्राइवेट नौकरी में कभी-कभार ही किसी व्यक्ति की सेवानिवृत्ति के मामले सामने आते हैं। ज्यादातर लोग एक स्थान पर टिक नहीं पाते और कई तो नौकरी पूरी होने से पहले ही छोड़ देते हैं।
हाल ही में एक संस्थान में शुक्लाजी सेवानिवृत हुए। शुक्लाजी की संस्थान में काफी अहम भूमिका रही। कद-काठी से वह जितने लंबे-तगड़े नजर आते हैं, उतने ही सख्त वह काम के प्रति भी रहे। समय से काम पूरा करने को लेकर उनकी कई बार अपने अधिनस्थ व दूसरे सहयोगियों के साथ तीखी झड़प तक हो जाती थी। लगता था कि  जिस व्यक्ति से उनकी बहस हो रही है, वह बड़े विवाद को जन्म लेगी। काम निपटा और बात आई गई में बदल जाती। न वह दिल में रखते और न ही कोई दूसरा ही दिल में रखता। हंसी व मजाक की फूलझड़ी भी बीच-बीच में चलती रहती। यह थी शुक्ला जी की कार्यप्रणाली। समर्पण और सहयोगियों को साथ लेकर चलने की भावना। इसी भावना को लेकर उन्होंने प्राइवेट नौकरी में अपना जीवन समर्पित किया। उनकी कार्यप्रणाली दूसरों के लिए प्रेरणा, सबक व नसीहत भी है। कब वह साठ के हुए उन्हें इसका आभास तक नहीं हो का।
हमेशा सख्त दिखने वाले शुक्लाजी धर्म परायण व्यक्ति हैं। जब वह घर से आफिस को निकलते हैं, तो बचा-खुचा खाना एक डब्बे में लेकर चलते हैं। रास्ते में जहां भी गाय मिलती, उसे हाथ जोड़कर वह उसे भोग लगाते। तब जाकर आफिस पहुंचते।
रिटायरमेंट की तिथि जैसे ही निकट आ रही थी। उससे पहले ही शुक्लाजी मायूस से नजर आने लगे। जिस जगह नौकरी में उनकी जिंदगी ही कट गई, वही स्थान कुछ दिन बाद उनके लिए बेगाना होने वाला था। विदाई के दिन वह अपनी भावुकता पर रोक नहीं लगा सके। लाख कोशिश के बावजूद उनकी आंखों से आंसू छलक रहे थे। सभी स्टाफ के कर्मचारी व सहयोगियों ने कहा कि भले ही ड्यूटी में अब उनका साथ नहीं रहेगा, लेकिन हम दिल से आपके साथ हैं। आप जब भी आवाज दोगे तो हम खड़े हो जाएंगे। इसके बावजूद शुक्लाजी के आंसू बरबस ही बह रहे थे। ठीक उसी तरह जब कोई अपने गांव, शहर या घर को छोड़कर अपना भविष्य बनाने के लिए किसी दूसरे शहर में जाता है। या फिर बेटी की शादी में माता-पिता को उसके बिछु़ड़ने का जो दुख होता है, ठीक उसी तरह शुक्लाजी के मन में भी इसी तरह का दुख था। बिछड़ने के इस दुख को वही समझ सकता है, जो इसे देख चुका होता है। क्योंकि व्यक्ति कहीं भी रहे। वह बचपन की यादें, किशोर अवस्था के दिन, नौकरी के अनुभव व पुरानी सभी यादें वह भूल कर नहीं भुला सकता। इन्हीं यादों के सहारे व नई पारी की शुरूवात अब शुक्लाजी को करनी है।
भानु बंगवाल

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