Saturday, 27 April 2013

The Juggler...

बाजीगर की नजर पड़ी नए तमाशों पर.....
उत्तराखंड में पिछले कई दिन से स्थानीय निकायों के चुनावों का शोर मचा हुआ था। जो नेता बार-बार संपर्क करने के बावजूद भी नहीं मिल पाते थे, वे भी जनता की चौखट पर दस्तख दे रहे थे। जनता के सुख-दुख के सच्चे साथी साबित करने के लिए उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। जो नेता चार पहिये की गाड़ी से नीचे नहीं उतरते थे, वे भी गली-गली घूमकर अपना कई किलो वजन गिरा चुके हैं। रविवार को मतदान के साथ ही यह शोर भी थम गया और मतगणना तक नेताओं के दिल की धुकधुकी को बढा गया। चुनाव के नतीजे के बाद फिर स्थिति वही हो जानी है, जो पहले की थी। यानी पांच साल तक नेताजी के चक्कर मारते रहो और वे सत्ता के मद में चूर होते रहेंगे। सचमुच ये नेता तो एक मदारी या फिर बाजीगर हैं। पूरे पांच साल जनता को अपने इशारों पर नचाते हैं। विरोध के नाम पर जनता कसमसाकर मायूस हो जाती है। जब नेता बदलने का मौका मिलता है, तब फिर उसी नेता को मौका देती है, जो शोषण की पराकाष्ठा को पार करने में माहिर होता है।
आखिर क्यों होते हैं ये चुनाव। क्यों चुनते हैं हम अपना प्रतिनिधि। क्यों हम ऐसे व्यक्ति पर विश्वास करते हैं कि वह हमारे साथ ही मोहल्ले, शहर की कायाकल्प बदल देगा। क्यों हम विकास की बागडोर उसके हाथों में सौंप देते हैं। क्यों जनता अपना फर्ज भूल जाती है। क्यों हम उसके हर कार्यों पर नजर नहीं रखते। क्यों नहीं हम उसकी गलतियों से लोगों को अवगत कराकर एक ऐसा माहौल बनाने का प्रयास करते हैं कि वह गलतियों को सुधारे और उससे सबक ले। साथ ही एक स्वच्छ वातावरण बनाने का प्रयास करे। हम लाचार बने रहते हैं। क्योंकि हमारी मानसिकता गुलामी की हो गई है। ये गुलामी आज से नहीं है। न ही अंग्रेजों के जमाने से। ये गुलामी तो तब से है जब से मदारी का चलन इस दुनियां में आया और उसने बंदरों को नचाना शुरू किया।
कहावत है कि एक बरगद के पेड़ पर एक बंदर रहता था। उसकी मित्रता एक व्यक्ति से हो गई। वह व्यक्ति काफी गरीब था। दिन भर मेहनत करता और किसी तरह अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाता। बची रोटी को वह बंदर को भी खिलाना नहीं भूलता। एक दिन बंदर का मनुष्य मित्र काफी उदास था। उसने बताया कि पहले सूखे से फसल नष्ट हो गई। फिर सारी कसर बाढ़ ने पूरी कर दी। अब उसके समक्ष खाने के लिए कोई साधन नहीं बचा है। इस पर बंदर ने व्यक्ति को कहा कि मैं तु्म्हारे कुछ काम आ सकता हूं। तुम अच्छा कमा सकते हो। तुम्हारे साथ मैं भी मेहनत करते अपना जीवन सुधार सकता हूं। यदि तुम मेरा सुझाव मानो। बंदर ने व्यक्ति से बताया कि उसे साथ लेकर वह गली-गली घूमे। वह खेल दिखाएगा। लोग खुश होंगे। कुछ पैसा व खाद्यान्न लोग ईनाम के रूप में देंगे। इसे दोनों आधा-आधा बांट लेंगे। दोनों का ही इससे आसानी से गुजार चल जाएगा।
व्यक्ति को अपने बंदर मित्र का सुझाव पसंद आया और दोनों ने इस पर अमल भी कर दिया। दोनों गली-गली गली घूमते और बंदर करतब दिखाता। व्यक्ति का नाम मदारी पड़ गया और बंदर-बंदर ही रहा। जैसे-जैसे आय बढती रही मदारी का स्वार्थ बढ़ने लगा। उसे लगा कि क्यों वह बंदर को कमाई का आधा हिस्सा दे। वह पूरा ही क्यों न ले। ऐसे में पहले उसने बंदर के गले में रस्की बांध दी। फिर उसे लेकर करतब दिखाने लगा। मदारी के हाथ में डंडा भी आ गया। यानी वह सत्ता का मालिक हो गया। बंदर को उसने भरपेट खाना देना भी बंद कर दिया। बंदर में सिर्फ रही छटपटाहट। साथ ही शोषण से बाहर निकलने की ताकत उसमें खत्म हो गई।
ठीक इसी तरह हम जनता रूपी बंदर भी मदारी व बाजीगरों को ही अपने देश का भविष्य सौंप रहे हैं। वह देश का भला नहीं, बल्कि अपना भला चाहता है। इस बाजीगर की नजर हर दिन नए तमाशों पर पड़ती है। वह बिखरी लाशों पर भी अपने वोट तलाशने में कोई गुरेज नहीं करता है। इसके विपरीत बंदर सिर्फ बंदर ही रहता है। मदारी अपनी झोली निरंतर भरता रहता है। वहीं बंदर की झोली खाली रहती है। वह गले-गले कर्ज में डूबता चला जा रहा है। पांच साल बाद उसे उम्मीद बंधती है कि मदारी को बदलकर ही उसका भला हो सकता है, लेकिन यहां भी वह धोखा खा जाता है। कारण पूरे पांच साल तो बंदर नाचता है, लेकिन चुनाव के समय मदारी ही नाचने लगते हैं। वह जनता के द्वार जाकर अपना पिटारा खोलते हैं। इन पिटारों से आश्वासन की गोली, शिक्षा की गोली, विकास की गोली, सभी के कायापलट की गोली निकलती है। बंदरों से चूसी गई अपनी कमाई का मामूली हिस्सा वह अपने प्रचार में खर्च करता है। उसकी आदत को सभी जानते हैं कि वह अभी तो नाच रहा है, लेकिन जीतने के बाद वह सभी को नचाता फिरेगा। वहीं, बंदर सिर्फ अपनी भड़ास निकालने के लिए बोलता ही रहेगा, लेकिन कुछ कर नहीं पाएगा।
भानु बंगवाल 

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