Wednesday, 23 May 2012

संतोषी माताः आडंबर व छलावा

बात करीब पैंतीस साल से अधिक पुरानी है।बचपन की मुझे याद है तब सिनेमा हॉल में जय मां संतोषी पिक्चर लगी।तब देहरादून में टेलीविजन नहीं होते थे।टेलीफोन भी सरकारी अॉफिस व सेठ लोगों तक ही सीमित थे।इस धार्मिक फिल्म का प्रभाव हर वर्ग के लोगों पर पड़ा।पहले तो गांव-गांव व मोहल्लों की महिलाओं के जत्थे इस फिल्म को देखने सिनेमा हॉल तक पहुंचने लगे।फिर शुरू हुआ संतोषी माता की पूजा का दौर।महिलाएं संतोषी माता की पूजा के लिए शुक्रवार का उपवास रखने लगी।पांच, सात या सोलह उपवास के बाद उद्यापन किया जाने लगा।उपवास समाप्ति पर ब्राह्रामण परिवार के बच्चों को जिमने के लिए घर-घर बुलाया जाने लगा।मैं छोटा था।मुझे भी करीब हर शुक्रवार को किसी न किसी घर से उद्यापन में जिमने को बुलाया जाता।तब दक्षिणा भी दस पैसे मिलती थी, जो उस समय के िहसाब से मेरे लिए काफी थी।अच्छे पकवान व दक्षिणा की लालच में हर शुक्रवार का मुझे भी बेसब्री से इंतजार रहता था।
इस फिल्म ने लोगों में आध्यात्म की भावना को जाग्रत तो किया ही।साथ ही देशवासियों पर एक उपकार भी किया।वह यह था कि सप्ताह मंे एक दिन महिलाओं का भूखे रहने से राशन की बचत भी हो रही थी।साथ ही भूखे रहने की आदत से व्यक्ति का आत्मबल बढ़ता है और शारीरिक व मानसिक दृष्टि से भी व्यक्ति मजबूत होने लगता है।विपरीत परिस्थितियों से निपटने के लिए मानसिक व शारीरिक मजबूती भी जरूरी है।इसीलिए लाल बहादुर शास्त्री जी ने भी देशवासियों से सप्ताह में एक दिन भूखे रहने की अपील की थी।यदि पूरे देश की एक फीसदी आबादी भी हर सप्ताह उपवास रखे तो इसका परिणाम सार्थक निकलेगा।काफी राशन की बचत होगी, जो देश की तरक्की के लिए शुभ संकेत होगा।
संतोषी माता की पूजा, उपवास तक तो बात ठीक थी, लेकिन धर्म की आड़ में भोले-भाले लोगों को फंसाकर अपनी दुकान चलाने वाले लोग भी उन दिनों सक्रिय हो गए।यहां मेरा मकसद किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का नहीं है।मैं तो धर्म के नाम पर अपनी झोली भरने वालों व दूसरों को ठगने वालों का चेहरा उजागर करना चाहता हूं।देहरादून में राजपुर रोड पर दृष्टिबाधितार्थ संस्थान है।इसी से सटा हुआ है राष्ट्रपति आशियाना।राष्ट्रपति आशियाना में राष्ट्रपति के अंगरक्षक रहते हैं।जिनकी पोस्टिंग देहरादून में समय-समय पर दिल्ली राष्ट्रपति भवन से देहरादून के लिए होती है।प्रेजीडेंट्स बाडीगार्ड के नाम से ही आसपास के मोहल्ले का नाम बाडीगार्ड पड़ गया।उच्चारण बिगड़ा और बाद मंे इस मोहल्ले को बारीघाट के नाम से जाना जाने लगा।
संतोषी माता हरएक के दिलों दिमाग में छाने लगी।इसी बीच दृष्टिबाधितार्थ संस्थान में कार्यरत एक चौकीदार के घर में उनके गांव से एक महिला और उसका भाई आया।चौकीदार दंपती की मेहमान महिला ने खुद को संतोषी माता के नाम से प्रचारित करना शुरू कर िदया।देखते ही देखते यह चर्चा चारों ओर फैलने लगी।पहले चौकीदार के घर में ही महिला ने आसन सजाया।छोटे-मोटे चमत्कार दिखाए।फिर आसन को घर से आसन को उठाकर एक पंडाल के नीचे ले गई।घर के आगे छोटे के मैदान में पंडाल सजाकर शाम के समय से भजन व कीर्तन के कार्यक्रम आयोजित होने लगे।मोहल्ले के लोग पंडाल में भरपूर रोशनी के लिए पेट्रोमैक्स तक घरों से लाने लगे। संतोषी माता का रूप धरकर महिला मंच पर बैठती।लाल साड़ी, हाथ में त्रिशूल, सिर पर मुकुट आदि सभी कुछ उसके श्रृंगार में शामिल थे।रात को कीर्तन होता।इसमें पुरुष कम और मोहल्ले की महिलाओं व बच्चों की भीड़ ज्यादा रहती।दिनोंदिन भीड़ बढ़ने लगी और महिलाएं घर का करना भले ही भूल जाए, लेकिन संतोषी माता के दरबार जाना नहीं भूलती।अब महिलाएं चढ़ावे के नाम पर घर राशन भी दरबार में लुटाने लगी।लोगों के घर राशन कम होता जा रहा था, संतोषी माता व चौकीदार दंपत्ती का घर भरता जा रहा था।
उन दिनों दून में गैंगवार चल रही थी।भरतू व बारू गैंग के लोग एक-दूसरे के दुश्मन थे।अक्सर कहीं न कहीं दोनों गिरोह के सदस्य जब भी आमने-सामने होते तो गोलियां चल जाती और किसी गुट का कोई न कोई सदस्य जरूर मारा जाता था।इसी गिरोह का एक सदस्य बारीघाट रहता था।रामेश्वर नाम के इस व्यक्ति को मोहल्ले के लोग दाई करकर पुकारते।मोहल्ले के लोगों से उसका व्यवहार भी काफी अच्छा था।इस पर उसकी बात सभी मानते और उसकी इज्जत भी करते थे।
रामेश्वर का अक्सर समय या तो पुलिस से छिपने में बीतता या फिर जेल में।उसकी पत्नी गाय व भैंस पालकर बच्चों की परवरिश करती।संतोषी माता का प्रभाव रामेश्वर की पत्नी पर भी पड़ा।वह भी हर शाम दरबार में जाने लगी।शाम को गाय का दूध निकालने का समय भी नियमित नहीं रहा।ऐसे में जब गाय का बछड़ा जब हर रोज दूध के लिए चिल्लाने लगा तो गाय भी बिगड़ गई।उसने दूध देना बंद कर दिया।रामेश्वर को जब इसका पता लगा कि मोहल्ले के लोग घर का कामकाज छोड़़कर कथित संतोषी माता के फेर में पड़ गए हैं।साथ ही घर का राशन तक लुटाने लगे हैं।ऐसे में उसने पहले तो अपनी पत्नी को दरबार में न जाने ही चेतावनी दी।साथ ही एक दिन दरबार में पहुंचकर संतोषी माता व उसके भाई की पिटाई कर दी।पूरा पंडाल तहस-नहस कर दिया।फिर इसके बाद वहां कभी संतोषी माता का दरबार नहीं लगा।जब संतोषी माता भाग गई, तभी कई लोगों को पाखंडी महिला के चक्कर में खुद के लुटने का अहसास हुआ।इस घटना के बाद से लोग फिर से अपने कामकाज में जुट गए।घरों में संतोषी माता की पूजा की जाती रही। उपवास होते रहे, लेकिन अंतर यह आया कि पाखंड व छलावे के फेर में पडकर लोगों ने किसी पाखंडियों की पूजा नहीं की।
भानु बंगवाल

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