आखिर ये भूत क्या है, जो बचपन से ही मानव को डराता है। इन दिनों रामलीला चल रही है, तो मुझे भूत की भी याद आ गई। क्योंकि मौका देखकर मैं बच्चों को भी रामलीला दिखा रहा हूं। रामलीला में भूत तो नहीं होते, लेकिन राक्षस जरूर होते हैं। राक्षसों में सूपनर्खा व ताड़का को तो इतना डरावना बनाते हैं, कि बच्चे डरने लगते हैं। अब तो शायद बच्चे ऐसे चरित्रों को देखने के अभ्यस्त हो गए। लेकिन, 80 के दशक में सन 70 से 75 के बीच जब देहरादून में टेलीविजन नहीं थे, तब तो भूत के नाम से ही बच्चों के साथ ही बड़ों के शरीर में सिहरन दौड़ने लगती थी। आखिर क्या है ये भूत। ये तो सिर्फ इंसान की कल्पना है। बच्चे कहते थे कि उसका चेहरा डरावना होता है। पांव पीछे की तरफ होते हैं। काले कपड़े पहनता है। काला रंग यानी अंधेरे का प्रतीक। जब दिमाग में अंधेरा हो या फिर कोई रंग ही नहीं हो तो हर चीज काली ही नजर आती है। वैसे तो देवता व राक्षस प्रवृति व्यक्ति के भीतर ही होती है। जो व्यक्ति अच्चे कार्य करता है, दूसरों की भलाई करता है, उसके भीतर दैवीय गुण होते हैं। ऐसे व्यक्तियों को ही देवता कहा गया है। वहीं, जो लूटेरा होता है, दूसरों पर अत्याचार करता है, वही तो राक्षस हुआ। रामलीला मंचन के जरिये भी यही संदेश देने का प्रयास किया जाता है कि अपने भीतर के रावण को जला डालो। अपने भीतर के राक्षसी गुण को त्याग दो।
वैसे तो अब रामलीला के मंचन सिमटने लगे हैं। देर रात तक चलने वाली रामलीला को छोटा कर जल्द निपटाया जाने लगा। देहरादून के राजपुर में तो रामलीला 64 वें साल में प्रवेश कर गई। संचालक व समाजसेवी योगेश अग्रवाल बच्चों को रामलीला की तरफ आकर्षित करने के लिए नायब प्रयोग कर रहे हैं। पर्दा गिरते ही जब दूसरे दृश्य की तैयारी होती है, तो वह मंच से बच्चों से सवाल पूछते हैं। सही जवाब देने वाले बच्चों को टीवी सीरियल के कौन बनेगा करोड़पति की तर्ज पर ईनाम दिया जाता है। यह ईनाम चाहे दस रुपये ही क्यों न हो, लेकिन प्रतियोगिता जीतना भी काफी सम्मानजनक है। सवाल ऐसे होते हैं कि... राम के दादा का क्या नाम था। साथ ही दूसरा सवाल... आपके पिताजी के दादा का क्या नाम है। बच्चे शायद दूसरे सवाल का जवाब तक नहीं जानते। कितना भूल गए हम अपनी वंशावली को। राम के वंश को तो शायद याद रखते हैं, लेकिन टूट रहे परिवार के लोग अब अपने वंश के लोगों का नाम तक याद नहीं रख पा रहे हैं। दादा या दादी, नाना या नानी जिंदा हैं तो जबाव देना आसान। नहीं तो किसी को कुछ पता नहीं। यह प्रयोग कामयाब नजर आया। पूछे गए सवाल का जवाब दूसरे दिन देना पड़ता है। ऐसे में बच्चे सही जवाब देने के लिए रामलीला आ रहे हैं, जब बच्चे आएंगे तो अभिभावकों का साथ जाना भी मजबूरी हो गया।
चलिए में आपको टाइम मशीन में बैठाकर वर्ष 1974 में ले चलता हूं। नवरात्र के दौरान किशनपुर, चुक्खूवाला, राजपुर समेत देहरादून के विभिन्न स्थानों पर हर रात को रामलीला का मंच हो रहा है। राजपुर रोड के किनारे घंटाघर से लेकर दिलाराम बाजार तक कुछ एक दुकान व मकान तो हैं, लेकिन जैसे-जैसे आगे राजपुर या मसूरी की तरफ बढ़ेंगे तो सड़क सुनसान नजर आएगी। रात को इन सड़कों पर घनघोर अंधेरा। क्या पता कहां से भूत आ जाए, यही डर राहगीर को सताता रहता। वैसे तो रात को कोई सड़क पर निकलना नहीं चाहता था। मजबूरी में ही लोग कहीं आते जाते। साइकिल वाले भी काफी कम थे। स्कूटर वालों की हैसियत पैसेवालों में गिनी जाती है। किशनपुर की रामलीला देखने के लिए बारीघाट व राष्ट्रीय दृष्टि बाधितार्थ संस्थान के लोग जत्था बनाकर जाते हैं। राष्ट्रपति आशिया के निकट सड़क से सटा हुआ एक विशाल बरगद का पेड़ है। कहते हैं कि वहां भूत देखा गया है। कोई कहता कि वह सफेद घोड़े में सफेद कपड़े पहनकर घुमता है। कोई कहता कि काली बनियान व काला कच्छा पहने व हाथ में तलवार लेकर भूत लोगों के पीछे दौड़ता है। इस दौर के लोगों को क्या पता कि 21वीं सदी में हर गली व मोहल्ले में सफेदपोश भूत ही भूत नजर आएंगे। जो खुद मस्त रहेंगे और जनता परेशान। वे जनता को लूटेंगे, लेकिन इसकी खबर किसी को नहीं होगी। इस दिन रात को रामलीला देर रात दो बजे खत्म हुई। भूत के डर से इन दो मोहल्लों के लोग छोटे-छोटे जत्थे में घर को लौट रहे। बच्चे ऊंघते हुए बड़ों का हाथ पकड़े चल रहे। घर लौट रहे सबसे आगे वाला जत्था ठिठक गया। उसे दूर बरगद के पेड के पास दो काली परछाई नजर आई। फिर लोगों ने समझा उनका भ्रम है। जैसे ही आगे बड़े परछाई दो आकृतियों में बदल गई। सिर से पांव तक काला लिबास। हाथ में लंबे डंडे। पैरों में घुंघरु की छम-छम। उन्हें देखते ही सभी जत्थों के पैर गए थम। दोनों आकृतियां नृत्य कर रही थी और लोगों में भगदड़ मचने लगी। भागो भूत आया कहकर जिसे जहां रास्ता मिला वहीं से भागने लगा। ये भूत भी बड़े शरीफ थे, जो किसी को कुछ नहीं कह रहे थे। वे तो मस्त होकर नाच रहे थे। फिर किसी को उनसे क्यों डर लग रहा था। तभी कुछ ज्यादा उत्साहित एक भूत का कंबल से बना लबादा सरक गया। नई चेकदार कमीज ने उसकी पोल खोल दी। एक लड़की चिलाई...अरे ये तो संडोगी (मोहल्ले में बच्चों द्वारा रखा नाम) है। जब संडोगी का पता चला तो यह भी पक्का था कि दूसरा युवक संडोगी का मित्र वीरु होगा। दोनों ही अक्सर साथ देखे जाते थे। फिर क्या था, पड़ने लगी दर्जनों लोगों के मुख से दोनों को गालियां। पीछे से संडोगी व वीरू की माताएं भी घर को आ रही थी। उनसे कई ने शिकायत की, तो बेचारी शर्म से लाल होने लगी। फिर क्या था, युवकों की माताएं उनसे पहले घर पहुंच चुकी थी। उन्होंने अपने-अपने तरीके से बेटों को सजा देने की तैयारी कर ली। वहीं भूत बने दोनों युवक अब घर जाते समय धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहे थे। साथ ही वे भय से थर-थर कांप रहे थे कि घर की अदालत में क्या होगा।
भानु बंगवाल
वैसे तो अब रामलीला के मंचन सिमटने लगे हैं। देर रात तक चलने वाली रामलीला को छोटा कर जल्द निपटाया जाने लगा। देहरादून के राजपुर में तो रामलीला 64 वें साल में प्रवेश कर गई। संचालक व समाजसेवी योगेश अग्रवाल बच्चों को रामलीला की तरफ आकर्षित करने के लिए नायब प्रयोग कर रहे हैं। पर्दा गिरते ही जब दूसरे दृश्य की तैयारी होती है, तो वह मंच से बच्चों से सवाल पूछते हैं। सही जवाब देने वाले बच्चों को टीवी सीरियल के कौन बनेगा करोड़पति की तर्ज पर ईनाम दिया जाता है। यह ईनाम चाहे दस रुपये ही क्यों न हो, लेकिन प्रतियोगिता जीतना भी काफी सम्मानजनक है। सवाल ऐसे होते हैं कि... राम के दादा का क्या नाम था। साथ ही दूसरा सवाल... आपके पिताजी के दादा का क्या नाम है। बच्चे शायद दूसरे सवाल का जवाब तक नहीं जानते। कितना भूल गए हम अपनी वंशावली को। राम के वंश को तो शायद याद रखते हैं, लेकिन टूट रहे परिवार के लोग अब अपने वंश के लोगों का नाम तक याद नहीं रख पा रहे हैं। दादा या दादी, नाना या नानी जिंदा हैं तो जबाव देना आसान। नहीं तो किसी को कुछ पता नहीं। यह प्रयोग कामयाब नजर आया। पूछे गए सवाल का जवाब दूसरे दिन देना पड़ता है। ऐसे में बच्चे सही जवाब देने के लिए रामलीला आ रहे हैं, जब बच्चे आएंगे तो अभिभावकों का साथ जाना भी मजबूरी हो गया।
चलिए में आपको टाइम मशीन में बैठाकर वर्ष 1974 में ले चलता हूं। नवरात्र के दौरान किशनपुर, चुक्खूवाला, राजपुर समेत देहरादून के विभिन्न स्थानों पर हर रात को रामलीला का मंच हो रहा है। राजपुर रोड के किनारे घंटाघर से लेकर दिलाराम बाजार तक कुछ एक दुकान व मकान तो हैं, लेकिन जैसे-जैसे आगे राजपुर या मसूरी की तरफ बढ़ेंगे तो सड़क सुनसान नजर आएगी। रात को इन सड़कों पर घनघोर अंधेरा। क्या पता कहां से भूत आ जाए, यही डर राहगीर को सताता रहता। वैसे तो रात को कोई सड़क पर निकलना नहीं चाहता था। मजबूरी में ही लोग कहीं आते जाते। साइकिल वाले भी काफी कम थे। स्कूटर वालों की हैसियत पैसेवालों में गिनी जाती है। किशनपुर की रामलीला देखने के लिए बारीघाट व राष्ट्रीय दृष्टि बाधितार्थ संस्थान के लोग जत्था बनाकर जाते हैं। राष्ट्रपति आशिया के निकट सड़क से सटा हुआ एक विशाल बरगद का पेड़ है। कहते हैं कि वहां भूत देखा गया है। कोई कहता कि वह सफेद घोड़े में सफेद कपड़े पहनकर घुमता है। कोई कहता कि काली बनियान व काला कच्छा पहने व हाथ में तलवार लेकर भूत लोगों के पीछे दौड़ता है। इस दौर के लोगों को क्या पता कि 21वीं सदी में हर गली व मोहल्ले में सफेदपोश भूत ही भूत नजर आएंगे। जो खुद मस्त रहेंगे और जनता परेशान। वे जनता को लूटेंगे, लेकिन इसकी खबर किसी को नहीं होगी। इस दिन रात को रामलीला देर रात दो बजे खत्म हुई। भूत के डर से इन दो मोहल्लों के लोग छोटे-छोटे जत्थे में घर को लौट रहे। बच्चे ऊंघते हुए बड़ों का हाथ पकड़े चल रहे। घर लौट रहे सबसे आगे वाला जत्था ठिठक गया। उसे दूर बरगद के पेड के पास दो काली परछाई नजर आई। फिर लोगों ने समझा उनका भ्रम है। जैसे ही आगे बड़े परछाई दो आकृतियों में बदल गई। सिर से पांव तक काला लिबास। हाथ में लंबे डंडे। पैरों में घुंघरु की छम-छम। उन्हें देखते ही सभी जत्थों के पैर गए थम। दोनों आकृतियां नृत्य कर रही थी और लोगों में भगदड़ मचने लगी। भागो भूत आया कहकर जिसे जहां रास्ता मिला वहीं से भागने लगा। ये भूत भी बड़े शरीफ थे, जो किसी को कुछ नहीं कह रहे थे। वे तो मस्त होकर नाच रहे थे। फिर किसी को उनसे क्यों डर लग रहा था। तभी कुछ ज्यादा उत्साहित एक भूत का कंबल से बना लबादा सरक गया। नई चेकदार कमीज ने उसकी पोल खोल दी। एक लड़की चिलाई...अरे ये तो संडोगी (मोहल्ले में बच्चों द्वारा रखा नाम) है। जब संडोगी का पता चला तो यह भी पक्का था कि दूसरा युवक संडोगी का मित्र वीरु होगा। दोनों ही अक्सर साथ देखे जाते थे। फिर क्या था, पड़ने लगी दर्जनों लोगों के मुख से दोनों को गालियां। पीछे से संडोगी व वीरू की माताएं भी घर को आ रही थी। उनसे कई ने शिकायत की, तो बेचारी शर्म से लाल होने लगी। फिर क्या था, युवकों की माताएं उनसे पहले घर पहुंच चुकी थी। उन्होंने अपने-अपने तरीके से बेटों को सजा देने की तैयारी कर ली। वहीं भूत बने दोनों युवक अब घर जाते समय धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहे थे। साथ ही वे भय से थर-थर कांप रहे थे कि घर की अदालत में क्या होगा।
भानु बंगवाल
हा हा हा हा .. मजेदार.. सुनहरी यादें ... बहुत सुन्दर , बंगवाल जी
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