Wednesday, 9 October 2013

मन का विश्वास कमजोर हो ना....

सुबह उठा तो पता चला कि कुछ ज्यादा ही सो गया। जल्दबाजी में आफिस के लिए तैयार होने लगा। मुझे आफिस में देरी से पहुंचना पसंद नहीं है और न ही मैं बच्चों का भी स्कूल में देरी से जाना पसंद करता हूं। सभी को यही सलाह देता हूं कि समय से पहले पहुंचो। सुबह दस बजे आफिस पहुंचना होता है, लेकिन कई बार मैं सुबह साढ़े नौ पर ही पहुंच जाता हूं। ये मेरी आदत में शुमार है। जब देरी हो ही गई, वह भी ज्यादा नहीं, तो मैने सोचा कि रास्ते में बैंक का काम भी करता चला जाऊं। क्योंकि बैंक के सामने जब मैं पहुंचा तो तब ठीक दस बज रहे थे। वहां मुझे एक मिनट का काम था। ऐसे में मैने राजपुर रोड स्थित बैंक आफ बड़ोदा की शाखा के सामने मोटर साइकिल खड़ी की और बैंक के प्रवेश द्वार को सरकाकर भीतर घुस गया। भीतर का नजारा कुछ अजीब लगा। बैंक के सभी कर्मी अपनी सीट पर बैठने की बजाय खड़े थे। जिनकी सीट दूर थी, वे गैलरी में ही खड़े थे। काउंटर तक जाने के रास्ते पर कर्मचारियों के खड़े होने के कारण मैं भी ठीक प्रवेश द्वार से कुछ कदम आगे बढ़कर अपने स्थान पर खड़ा हो गया। मैने सोचा कि शायद कोई दुखद समाचार मिला है और कर्मचारी शोक सभा कर रहे हैं। फिर मुझे एक धुन सुनाई दी, जो शायद कंप्यूटर के जरिये बजाई जा रही थी। धुन चिरपरिचित एक प्रार्थना की थी। धुन के साथ ही प्रार्थना भी सुनाई देने लगी...इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना। बैंक में प्रार्थना वो भी कामकाज की शुरूआत से पहले। मुझे अटपटा सा लगा। जिस प्रार्थना को मैं बचपन में स्कूल में बोलता था, गाता था, वही मुझे बैंक में भई सुनाई दी।
प्रार्थना, यानी की अच्छाई को जीवन में उतारने का संकल्प। बचपन में जब मैं यह प्रार्थना सुनता व बोलता था, तब मुझे इसका अर्थ तक समझ नहीं आता था। शायद आज भी ठीक से नहीं समझ पाया हूं। क्योंकि हम जो बोलते हैं, उसे शायद करते कम ही हैं। छठी जमात तक स्कूल में सुबह प्रार्थना की लाइन में मैं भी खड़ा होता रहा। तमन्ना यही रहती कि उन पांच बच्चों में शामिल रहूं, जो सबसे आगे खड़े  होकर प्रार्थना बोलते हैं। फिर उनके पीछे सब बच्चे प्रार्थना को दोहराते हैं। मेरी आवाज बेसुरी थी। फटे बांस जैसी, सो मेरी प्रार्थना को लीड करने की यह तमन्ना कभी पूरी नहीं हो सकी। सातवीं से ऐसे स्कूल में पढ़ा,  जिसका नाम दयानंद एंग्लोवैदिक (डीएवी) कालेज था। वहां न तो सुबह प्रार्थना होती थी और न ही इंटरवल। कालेज में पहले घंटे (पीरिएड) से लेकर 14 पीरिएड होते थे। शिफ्ट में कक्षाएं चलती थी। हमारी सातवीं की कक्षा आठवें घंटे से लेकर 14 वें घंटे तक चलती थी। नवीं से 12 वीं तक की कक्षाएं सुबह की शिफ्ट में होती थी। ऐसे में न कोई प्रार्थना न इंटरवल। बैंक में खड़े रहने के दौरान मैं भी आंखे बंद कर खड़ा रहा। मुझे लगा कि मैं तीसरी या चौथी कक्षा का छात्र  हूं, जो प्रार्थना सभा में खड़ा है। टीचर हाथ में बेंत लेकर यह मुआयना कर रहा है कि कौन सा बच्चा प्रार्थना सही नहीं बोल रहा है। वही चेहरे व अध्यापकगण मेरी आंखों के सामने नाच रहे थे, जिन्हें मैं लंबे अर्से के बाद भूल चुका था।
बैंक को प्रार्थना की जरूरत क्यों पड़ी। क्या कारण है कि जो नैतिक शिक्षा का पाठ हम बचपन में पढ़ते थे, उसे दोहराया जाने लगा। क्यों प्रार्थना के जरिये हमारी नाड़ियों में ऐसे रक्त संचार की आवश्यकता महसूस की जाने लगी कि हमारा मन शुद्ध रहे। हम इस संकल्प के साथ काम की शुरूआत करें कि किसी दूसरे का बुरा न सोचें। वैसे तो प्रार्थना का कोई समय ही नहीं है। सुबह उठने से लेकर रात को सोते समय तक प्रार्थना दोहराई जा सकती है। पर मुझे नफरत है समाज सेवा का दंभ भरने वाली उस संस्थाओं के लोगों से जो रात को होटल में संस्था की बैठक में अपनी समाजसेवा की शेखी बघारते हैं। रात दस बजे से बैठक होती है और लगभग 12 बजे खत्म होती है। फिर शुरू होता है राष्ट्रीय गान...जन,गन,मन...। ऐसा लगता है जैसे बैठक में उपस्थित भद्रजनों को जबरन सजा दी जा रही है। क्योंकि एक तरफ राष्ट्रीय गान चल रहा होता है, वहीं दूसरी तरफ फैलोशिप व भोजन की तैयारी चल रही होती है। फैलोशिप यानी कि भाईचारा। जो दो पैग मारने के बाद ही भीतर से पनपता है। उधर, राष्ट्रीय गीत की धुन और दूसरी तरफ गिलास में तैयार होने पैग की खन-खन। इसके बगैर तो समाज सेवा की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
बैंक के कर्माचरियों से बातचीत करने के बाद यही निष्कर्ष निकला कि प्रार्थना के बहाने देरी से आने वाले कर्मचारी अपनी आदत में बदलाव तो करेंगे। साथ ही ग्राहकों से अच्छा व्यवहार करेंगे। प्रार्थना पौने दस बजे होनी थी,लेकिन देरी से आने वालों ने दस बजे से शुरू कराने की परंपरा डाल दी। प्रार्थना के दौरान सभी की आंखे मुंदी रहती हैं और देरी पर भी देरी से आने वाले चुपचाप से खड़े हो जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे अक्सर देरी करने वाला व्यक्ति बॉस व अन्य साथियों से हाथ मिलाए बगैर ही चुपचाप सबसे पहले अपनी सीट पर बैठता है कि शायद किसी को यह पता न चले कि वह फिर देरी से पहुंचा। फिर भी एक विश्वास है कि शायद हर रोज यह प्रार्थना दोहराने वालों का विश्वास कमजोर नहीं पड़ेगा। शायद खुद के विश्वास को मजबूत करने के लिए उनकी धमिनयों में नई उमंग, नई तरंग, नए उत्साह वाले रक्त का संचार होगा। यही तो है प्रार्थना का उद्देश्य। मुझे खुद भी देरी हो चुकी थी, सो मैं प्रार्थना के बाद बैंक में काम कराए बगैर ही जल्द ही वहां से खिसक गया। क्योंकि तब तक काउंटर में भीड़ लग चुकी थी। कर्मचारी अपनी कुर्सी पर बैठने की तैयारी कर रहे थे। सिक्योरिटी गार्ड आलमारी से अपनी बंदूक निकाल रहा था। कर्मचारी अपने कंप्यूटर को आन करने के बटन दबा रहे थे, लेकिन समय तेजी से सरक रहा था.....
भानु बंगवाल 

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