अत्याधुनिक कहलाने के
बावजूद अभी
भी हम
जातिवाद, सांप्रदायिकता
के जाल
से खुद
को बाहर
नहीं निकाल
पाते हैं।
छोटी-छोटी
बातों पर
उपजा छोटा
सा विवाद
कई बार
दंगे का
रूप धर
लेता है।
व्यक्ति-व्यक्ति
का दुश्मन
हो जाता
है। जाति
के नाम
पर, धर्म
के नाम
पर, सांप्रदायिकता
के नाम
पर बटा
व्यक्ति एक-दूसरे के
खून का
प्यासा हो
जाता है।
इसके विपरीत
सभी की
रगो में
एक सा
ही खून
दौड़ता है।
यदि चार
व्यक्तियों के खून को अलग-अलग परखनली
में डाला
जाए तो
उसे देखकर
कोई नहीं
बता सकता
कि किस
परखनली में
किससा खून
है। हिंदू
का है,
या मुस्लिम
का, सिख
का है
या ईसाई
का। क्योंकि
खून तो
बस खून
है। सभी
की रगों
में एक
समान दौड़ता
है। इसमें
जब फर्क
नहीं है
तो हम
क्यों फर्क
पैदा करते
हैं। खून
में फर्क
करके ही
लोग उन्माद
फैलाते हैं।
नजीजन किसी
न किसी
शहर में
दंगे के
रूप में
देखने को
मिलता है।
सफेदपोश इस
दंगे को
हवा देते
हैं और
अपने वोट
पक्के करते
हैं। पिसता
तो सिर्फ
गरीब इंसान
ही है।
उसकी स्थिति
तो एक
जानवर के
समान है।
जो अच्छे
व बुरे
को भी
नहीं पहचान
सकता और
आ जाता
है बहकावे
में।
बुरे इंसान की
संज्ञा जानवर
के रूप
में दी
जाती है।
तो सवाल
उठता है
कि क्या
वाकई जानवर
किसी से
प्रेम करना
नहीं जानते।
ऐसा नहीं
है। एक
कुत्ता भी
मालिक से
वफादारी निभाता
है। यही
नहीं एक
ही घर
में पल
रहे कुत्ता,
बिल्ली, तोता,
गाय सभी
एकदूसरे पर
हमला नहीं
करते हैं।
वे एक
दूसरे के
साथ की
आदत डाल
देते हैं।
कुत्ता गाय
से प्यार
जताता है,
तो गाय
भी उसे
प्यार से
चाटती है।
मेरे एक
मित्र के
घर कुत्ता
व तोता
था। जब
भी पड़ोस
की बिल्ली
तोते की
फिराक में
उसके घर
पहुंचती तो
तोता कुत्ते
से सटकर
बैठ
जाता और खुद को
सुरक्षित महसूस
करता। बिल्ली
बेचारी म्याऊं-म्यीऊं कर
वहां से
खिसक लेती।
कई बार
तो कुत्ता
गुर्राकर बिल्ली
को भगा
देता। जब
एक घर
के जानवर
एक छत
के नीचे
प्यार से
रहते हैं
तो एक
देश के
इंसान क्यों
नहीं रह
सकते। क्यों
हम जानवर
के बदतर
होते जा
रहे हैं।
आपस में
प्यार करना
सीखो। जैसे
गौरी ने
घर के
सभी सदस्यों
से किया।
गौरी मेरी एक
गाय का
नाम था।
हम देहरादून
में जिस
कालोनी में
रहते थे,
वहां अधिकांश
लोगों ने
मवेशी पाले
हुए थे।
इससे घर
में दूध
भी शुद्ध
मिल जाता
था। साथ
ही कुछ
दूध बेचकर
मवेशियों के
पालन का
खर्च भी
निकल जाता
था। करीब
सन 82 की
बात होगी।
पिताजी से
घर के
सभी सदस्यों
ने गाय
खरीदने की
जिद करी।
सभी ने
यही कहा
कि हम
सेवा करेंगे
और दाना,
भूसा समय
से खिलाने
के साथ
ही हम
गाय का
पूरा ख्याल
रखेंगे। गाय
तलाशी गई,
लेकिन अच्छी
नसल की
गाय तब
के हिसाब
से काफी
महंगी थी।
फिर एक
करीब पांच
माह की
जरसी नसल
की बछिया
ही सस्ती
नजर आई
और घर
में खूंटे
से बांध
दी गई।
इस बछिया
का नाम
गौरी रखा
गया। मैं
और मुझसे
बड़े भाई
व बहन
इस बछिया
को ऐसे
प्यार करते
थे, जैसे
परिवार का
ही कोई
सदस्य हो।
जैसा व्यवहार
करो वैसा
ही
जीव हो जाता है। गौरी
भी सभी
से घुलमिल
गई। हम
उसे पुचकारते
थे, तो
वह भी
खुरदुरी जीभ
से हमें
चाटकर प्यार
जताती थी।
घर में
पालतू कुक्ते
जैकी से
भी वह
घुलमिल गई।
खुला छोड़ने
पर दोनों
खेलते भी
थे। गाढ़े
भूरे रंग
की गौरी
इतनी तगड़ी
हो गई
कि दूर
से वह
घोड़ा नजर
आती थी।
पड़ोस के
बच्चे भी
उसे सहलाते
और वह
चुप रहती।
गौरी बड़ी
हुई पूरी
गाय बनी।
कई बार
उसने
बछिया व बछड़े जने। साथ
ही घर
में दूध
की कमी
नहीं रही।
वर्ष, 89 में पिताजी
सरकारी सेवा
से सेवानिवृत्त
हुए। कालोनी
से घर
खाली करना
था। ऐसे
में हमें
किराए का
मकान लेना
था। एक
मकान तलाशा,
लेकिन वहां
इसकी गुंजाइश नहीं थी कि
गौरी को
भी वहां
ले जाया
जा सके।
इस पर
गौरी को
बेचने का
निर्णय किया
गया। फिलहाल
गौरी को
वहीं कालोनी
में पुराने
मकान के
साथ बनी
गोशाला में
ही रखा
गया। पुराने
एक पड़ोसी
को उसे
समय से
दाना-पानी
देने की
जिम्मेदारी सौंपी गई। सज्जन पड़ोसी
हर दिन
सुबह गौरी
को दाना-पानी देते
और कुछ
देर के
लिए खुला
छोड़ देते।
वहां समीप
ही जंगल
था। गौरी
जंगल जाती
और वहां
से चर
कर वापस
गोशाला आती
व खूंटे
के समीप
खड़ी हो
जाती। हर
वक्त उसकी
आंखों से
आंसू निकलते
रहते। जब
कभी हम
उसे देखने
जाते तो
उसकी आंख
से लगातार
आंसू गिरते
रहते। हमारे
वापस जाने
पर वह
ऐसी आवाज
में चिल्लाती,
जो मुझे
काफी पीड़ादायक
लगती।
एक दिन हमारे
घर में
कोई आया
और गौरी
को खरीद
गया। उसका
घर हमारे
घर से
करीब आठ
किलोमीटर दूर
था। ना
चाहते हुए
भी गौरी
को हमें
देना पड़ा।
उसे रस्सी
से बांधकर
जब नया
मालिक व
उसके सहयोगी
ले जा
रहे थे,
तो गौरी
अनजान व्यक्ति
के साथ
एक कदम
भी नहीं
चली। इस
पर मुझे
उनके साथ
जाना पड़ा।
मैं साथ
चला तो
शायद गौरी
ने यही
सोचा कि
जहां घर
के सभी
सदस्य हैं,
वहीं ले
जा रहे
होंगे। इस
पर वह
बगैर किसी
प्रतिरोध के
मेरे पीछे-पीछे चलने
लगी। उसके
नए मालिक
के घर
पहुंचने पर
गौरी को
वहां खूंटे
से बांध
दिया गया।
मेरे लौटने
के बाद
से उसका
रोने का
क्रम फिर
से शुरू
हो गया।
बताया गया
कि वह
कई दिनों
तक आंसू
बहाती रही।
फिर धीरे-धीरे नए
मालिक के
घर के
सदस्यों से
घुलमिल गई।
जिस दिन
में गौरी
को खरीदार
के घर
छोड़ गया
था, उस
दिन से
मैने भी
उसे नहीं
देखा। इसके
बावजूद गौरी
का प्रेम
में आज
तक नहीं
भूल सकता।
भानु बंगवाल
सही है सर, दरअसल आज इंसान तो जानवर बन गया है, लेकिन जानवरों में कुछ इंसानियत आज भी बाकी है।
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