मई दिवस। यानी कि पहली मई। दुनियां के मजदूरों की एकता का दिवस। अन्याय व शोषण के खिलाफ आवाज उठाने का दिन। सालभर सहने वाले उत्पीड़न के खिलाफ एक दिन भड़ास निकालने का दिन। पूरे साल भर बुद्धू बनने के बाद इस दिन यह कहने का अवसर कि-नो उल्लू बनाईंग। क्या सचमुच इस दिन में एक जादू छिपा है, या फिर हम हर साल लकीर को पीटकर यही कहते हैं कि-दुनियां के मजदूरों एक हो। बचपन से मई दिवस को एक की अंदाज में मनाते हुए मैं देखता आ रहा हूं। तब और अब में ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। हां पहले जो मजदूर सड़कों पर उतरता था, उसमें एक उत्साह, तरंग व उमंग जरूर रहती थी। अब तो यह दिन परंपराभर का रह गया है।
जब में छोटा था तब मुझे पहली मई का बेसब्री से इंतजार रहता था। कारण यह था कि पिताजी जिस सरकारी संस्थान में कार्य करते थे, वहां के कार्मिक भी मई दिवस से जुलूस में शामिल होते थे। सभी कार्मिकों में इस दिन के प्रति इतना उत्साह रहता था कि वे जुलूस में अपने बच्चों को लेकर भी जाते। तब बाजार तक जाने के ज्यादा मौके बच्चों को नहीं मिलते थे। ऐसे में मई दिवस के जुलूस के बहाने बच्चों का बाजार तक का चक्कर लग जाता था। साथ ही मजा यह कि मोहल्ले के सभी बच्चे एकसाथ रहते।
दोपहर तप्ती धूप में कर्मचारी जुलूस निकालते। देहरादून में घंटाघर से करीब चार किलोमीटर दूर राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान से जब दोपहर बाद चार बजे कर्मचारी जुलूस निकालते तो उनके साथ नारे लगाने वालों में बच्चे कुछ ज्यादा ही उत्साह में दिखते। करीब आध घंटे में जुलूस एस्लेहाल तक पहुंच जाता। यहां पर अन्य संस्थानों के जुलूस में यह जलूस भी मर्ज हो जाता। फिर एक विशाल जुलूस शहर के मुख्य बाजारों से होकर गुजरता। यह सच ही था कि इस एक दिन कारंवा बढ़ता जाता और जुलूस में सभी रंग शामिल होते जाते। छोटा व बड़ा कर्मचारी सभी तो इसमें शामिल होता।
जैसे-जैसे जुलूस आगे बढ़ता मेरा धैर्य जवाब देने लगा। पैर में छाले पड़ने लगते। चलने की हिम्मत जवाब देने लगी। इसकी चुगली मैं अपने पिताजी से करता। जो काफी गर्म मिजाज के थे। उन्हें कोई समस्या या दिक्कत बताओ तो पुचकार के बजाय थप्पड़ पड़ने का अंदेशा ज्यादा रहता था। पर इस दिन तो उनका गुस्सा भी नदारद रहता था। वह मेरा उत्साहवर्धन करते। फिर किसी ठेलीवाले से एक रुपये में एक दर्जन केले खरीदते और मुझे छह केले थमा देते और आधे वे खुद खाते। केले पेट में जाते ही मुझे और थकान महसूस होने लगी। मेरा पेट गुड़गुड़ करने लगा। तब सार्वजनिक शौचालय भी नहीं होते थे। ऐसे में मुझे नाली पर बैठकर ही हल्का होना पड़ता। साथ ही यह डांट भी लगती कि अगली बार मुझे जुलूस में नहीं लाया जाएगा।
विभिन्न स्थानों से गुजरने के बाद यह जुलूस एक सभा में बदल जाता। तब रोटी मांग रहे लोगों का पेट भाषण से भरा जाता। भाषण भी इतने उबाऊ होते कि सुनने वाला गश खाकर गिर पड़े। हां यह जरूर रहता कि इन भाषणों में मजदूरों को खुशहाल भविष्य के सपने दिखाए जाते। एक दिन सत्ता आपकी होगी। सामंतशाही का अंत होगा। हर आम को उसका हक मिलेगा। यही तो इन भाषणों में होता। वैसे तब इन दिन का ना तो मुझे अर्थ व महत्व ही समझ आता था और न ही आज भी समझ पाया। क्योंकि हम परंपराओं को निभाते आ रहे हैं। वहीं इसके उलट मजदूरों की आबाज को बुलंद करना महज नाटक साबित हो रहा है।
हर साल ऐसे जुलूस निकलते। मजदूर तो मजदूर ही रहता है। मजदूर नेता जरूर दोनों हाथों से संपत्ती बटोरता रहता है, लेकिन फिर वह भी मजदूरों का नेता कहलाता है। मजदूर व मजबूरों का तो उसी तरह हाजमा बिगड़ रहा है, जैसे बचपन में मेरा जुलूस के दिन बिगड़ता था। तभी तो दिनरात की मेहनत करन के बावजूद मजदूर की जीवन की गाड़ी पटरी में नहीं उतरती। हाजमा गड़बड़ाने की तरह उसका बजट भी गड़बड़ताता है। वहीं श्रमिक नेता मजदूरों की एकता के नाम पर चंदा डकार कर अपना हाजमा मजबूत कर रहे हैं। मजदूर एकता जिंदाबाद के नारे फिजाओं में गूंजते रहते हैं। मजदूरों को उनकी ताकत का अहसास कराया जाता। उस ताकत का, जो आम आदमी को खास बना देती है। तभी तो इन आम लोगों की भीड़ से खास लोग जन्म ले रहे हैं। फिर भी वे खुद को आम कहलाना ही पसंद करते हैं। ऐसे आम आदमी के पास ऐसी कार होती हैं। एसी की हवा का आनंद लेते हुए वे होटलों में बैठकर मजदूरों व मजबूरों की चिंता करते हैं। फिर बाहर निकलकर वे गला साफ करते हैं कि-मजदूर एकता जिंदाबाद।
आज से चाहे पचास साल पहले ही बात करें, तब भी मालिक व मजदूरों में एक टकराव की स्थिति रहती थी, जो आज भी है। मजदूरों के लिए श्रम कानून बने हैं, लेकिन उन पर अमल करने और अमल कराने वाले दोनों ही चुप हैं। मजदूरों की आवाज कहलाने वाला मीडिया भी उनके अधिकारों को लेकर चुप है। मीडिया को भी हाईटेक न्यूज चाहिए। ऐसे लोगों के समाचार, जो वाकई पाठक हों। तभी तो पिछले पंद्रह-बीस सालों से मजूदरों के श्रम व अधिकारों को लेकर समाचार अब गायब ही होने लगे हैं। पहले समाचार पत्रों में ऐसे समाचार पहले पेज से लेकर आखरी पेज में स्थान बनाते थे। अब मजदूरों को समाचारों में रंगकर क्या हासिल होगा, यह बात अब मीडिया भी जानता है। तभी तो वह भी सिर्फ एक दिन मई दिवस के दिन सक्रिय होकर कहता है- मजदूर एकता जिंदाबाद। वहीं आज के जुलूस में कार्मिक तो हैं, लेकिन बच्चे गायब हैं। क्योंकि कोई भी कर्मचारी नहीं चाहेगा कि उसका बेटा आम आदमी की कतार में रहे। ऐसे में कर्मचारी अकेले ही जुलूस में चिल्लाकर कहता है मजदूर एकता।
भानु बंगवाल
जब में छोटा था तब मुझे पहली मई का बेसब्री से इंतजार रहता था। कारण यह था कि पिताजी जिस सरकारी संस्थान में कार्य करते थे, वहां के कार्मिक भी मई दिवस से जुलूस में शामिल होते थे। सभी कार्मिकों में इस दिन के प्रति इतना उत्साह रहता था कि वे जुलूस में अपने बच्चों को लेकर भी जाते। तब बाजार तक जाने के ज्यादा मौके बच्चों को नहीं मिलते थे। ऐसे में मई दिवस के जुलूस के बहाने बच्चों का बाजार तक का चक्कर लग जाता था। साथ ही मजा यह कि मोहल्ले के सभी बच्चे एकसाथ रहते।
दोपहर तप्ती धूप में कर्मचारी जुलूस निकालते। देहरादून में घंटाघर से करीब चार किलोमीटर दूर राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान से जब दोपहर बाद चार बजे कर्मचारी जुलूस निकालते तो उनके साथ नारे लगाने वालों में बच्चे कुछ ज्यादा ही उत्साह में दिखते। करीब आध घंटे में जुलूस एस्लेहाल तक पहुंच जाता। यहां पर अन्य संस्थानों के जुलूस में यह जलूस भी मर्ज हो जाता। फिर एक विशाल जुलूस शहर के मुख्य बाजारों से होकर गुजरता। यह सच ही था कि इस एक दिन कारंवा बढ़ता जाता और जुलूस में सभी रंग शामिल होते जाते। छोटा व बड़ा कर्मचारी सभी तो इसमें शामिल होता।
जैसे-जैसे जुलूस आगे बढ़ता मेरा धैर्य जवाब देने लगा। पैर में छाले पड़ने लगते। चलने की हिम्मत जवाब देने लगी। इसकी चुगली मैं अपने पिताजी से करता। जो काफी गर्म मिजाज के थे। उन्हें कोई समस्या या दिक्कत बताओ तो पुचकार के बजाय थप्पड़ पड़ने का अंदेशा ज्यादा रहता था। पर इस दिन तो उनका गुस्सा भी नदारद रहता था। वह मेरा उत्साहवर्धन करते। फिर किसी ठेलीवाले से एक रुपये में एक दर्जन केले खरीदते और मुझे छह केले थमा देते और आधे वे खुद खाते। केले पेट में जाते ही मुझे और थकान महसूस होने लगी। मेरा पेट गुड़गुड़ करने लगा। तब सार्वजनिक शौचालय भी नहीं होते थे। ऐसे में मुझे नाली पर बैठकर ही हल्का होना पड़ता। साथ ही यह डांट भी लगती कि अगली बार मुझे जुलूस में नहीं लाया जाएगा।
विभिन्न स्थानों से गुजरने के बाद यह जुलूस एक सभा में बदल जाता। तब रोटी मांग रहे लोगों का पेट भाषण से भरा जाता। भाषण भी इतने उबाऊ होते कि सुनने वाला गश खाकर गिर पड़े। हां यह जरूर रहता कि इन भाषणों में मजदूरों को खुशहाल भविष्य के सपने दिखाए जाते। एक दिन सत्ता आपकी होगी। सामंतशाही का अंत होगा। हर आम को उसका हक मिलेगा। यही तो इन भाषणों में होता। वैसे तब इन दिन का ना तो मुझे अर्थ व महत्व ही समझ आता था और न ही आज भी समझ पाया। क्योंकि हम परंपराओं को निभाते आ रहे हैं। वहीं इसके उलट मजदूरों की आबाज को बुलंद करना महज नाटक साबित हो रहा है।
हर साल ऐसे जुलूस निकलते। मजदूर तो मजदूर ही रहता है। मजदूर नेता जरूर दोनों हाथों से संपत्ती बटोरता रहता है, लेकिन फिर वह भी मजदूरों का नेता कहलाता है। मजदूर व मजबूरों का तो उसी तरह हाजमा बिगड़ रहा है, जैसे बचपन में मेरा जुलूस के दिन बिगड़ता था। तभी तो दिनरात की मेहनत करन के बावजूद मजदूर की जीवन की गाड़ी पटरी में नहीं उतरती। हाजमा गड़बड़ाने की तरह उसका बजट भी गड़बड़ताता है। वहीं श्रमिक नेता मजदूरों की एकता के नाम पर चंदा डकार कर अपना हाजमा मजबूत कर रहे हैं। मजदूर एकता जिंदाबाद के नारे फिजाओं में गूंजते रहते हैं। मजदूरों को उनकी ताकत का अहसास कराया जाता। उस ताकत का, जो आम आदमी को खास बना देती है। तभी तो इन आम लोगों की भीड़ से खास लोग जन्म ले रहे हैं। फिर भी वे खुद को आम कहलाना ही पसंद करते हैं। ऐसे आम आदमी के पास ऐसी कार होती हैं। एसी की हवा का आनंद लेते हुए वे होटलों में बैठकर मजदूरों व मजबूरों की चिंता करते हैं। फिर बाहर निकलकर वे गला साफ करते हैं कि-मजदूर एकता जिंदाबाद।
आज से चाहे पचास साल पहले ही बात करें, तब भी मालिक व मजदूरों में एक टकराव की स्थिति रहती थी, जो आज भी है। मजदूरों के लिए श्रम कानून बने हैं, लेकिन उन पर अमल करने और अमल कराने वाले दोनों ही चुप हैं। मजदूरों की आवाज कहलाने वाला मीडिया भी उनके अधिकारों को लेकर चुप है। मीडिया को भी हाईटेक न्यूज चाहिए। ऐसे लोगों के समाचार, जो वाकई पाठक हों। तभी तो पिछले पंद्रह-बीस सालों से मजूदरों के श्रम व अधिकारों को लेकर समाचार अब गायब ही होने लगे हैं। पहले समाचार पत्रों में ऐसे समाचार पहले पेज से लेकर आखरी पेज में स्थान बनाते थे। अब मजदूरों को समाचारों में रंगकर क्या हासिल होगा, यह बात अब मीडिया भी जानता है। तभी तो वह भी सिर्फ एक दिन मई दिवस के दिन सक्रिय होकर कहता है- मजदूर एकता जिंदाबाद। वहीं आज के जुलूस में कार्मिक तो हैं, लेकिन बच्चे गायब हैं। क्योंकि कोई भी कर्मचारी नहीं चाहेगा कि उसका बेटा आम आदमी की कतार में रहे। ऐसे में कर्मचारी अकेले ही जुलूस में चिल्लाकर कहता है मजदूर एकता।
भानु बंगवाल
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