उस दौरान दस नंबरी का आशय ऐसे व्यक्तित्व से लगाया जाता था, जो चालाक हो, तेज तर्रार हो. कुछ धूर्त हो, कुछ बदमाश हो, बदमाशों की खैर रखता हो आदि-आदि। कारण कि 1976 में मनोज कुमार की जो फिल्म रीलिज हुई उसका नाम दस नंबरी था। ऐसे में दस नंबरी नाम का व्यक्तित्व उक्त प्रकार का होना चाहिए। पर उस मोहल्ले में तो एक महिला का नाम ही दस नंबरी पड़ गया। वह भी गर्व से अपने इस नाम को सुनकर फूली न समाती थी। देहरादून के राजपुर रोड स्थित राष्ट्रपति आशिया के क्वार्टर में एक कमरे के मकान में रहती थी दस नंबरी। राष्ट्रपति आशिया की देखरेख एक दफेदार (जेसीओ) करता है। इसमें मुख्य भवन में करीब 26 कमरों की कोठी है। इसमें फखरूदीन अली अहमद से लेकर कई राष्ट्रपति जब दून आए तो वहीं ठहरे थे। यही नहीं फखरूदीन अली अहमद ने तो इस परिसर में आम की पौध का रोपण भी किया था, जो अब बड़े फलदार पेड़ का रूप ले चुके हैं। यह परिसर काफी बड़ा है। इसके एक छोर में पहले घोड़ों की घुड़साल व गोशालाएं थी। बाद में इन गोशालाओं को कमरे का रूप दे दिया गया और उन्हें मामूली किराए में गरीब लोगों को रहने को दिया जाने लगा। यह किराए का सिलसिला करीब 1950 के बाद शुरू हुआ। तब राष्ट्रपति आशिया की जमीन पर बनी बैरिकों में कमरों की संख्या करीब साठ से अधिक रही होगी। पर किराए पर करीब चालीस से अधिक कमरे दिए गए थे। इनका किराया राष्ट्रपति का अंगरक्षक (बार्डीगाड) वसूलता था। इस राशि से परिसर की सफाई आदि का कार्य मैनटेंन किया जाता था। राष्ट्रपति आशिया के इन क्वार्टर को बार्डीगाड लाइन कहा जाता था। इससे सटे मोहल्ले का नाम बिगड़कर बारीघाट हो गया। घना मोहल्ला, लेकिन तब किसी भी कमरे में बिजली की सुविधा नहीं थी। सभी किराएदार मिट्टी के तेल की डिबिया या लैंप जलाकर रात को घर रोशन करते थे। दफेदार किसी को बिजली कनेक्शन लेने की अनुमति नहीं देता था। उसे डर था कि कहीं लोगों के पास वहां रहने का प्रमाण एकत्र न हो जाए और जरूरत पड़ने पर कमरे खाली करना मुश्किल हो जाएगा। गरीब लोग इसलिए खुश थे कि पांच रुपये महीने में उन्हें पंद्रह फीट लंबा व नौ फुट चौड़ा कमरा मिला हुआ था।
बार्डीगाड लाइन में हर कमरे के आगे व पीछे काफी खाली जमीन थी। ऐसे में वहां रहने वाले लोग अपने कमरे के सामने व पीछे की जमीन पर अपनी जरूरत की सब्जियां भी उगाते थे।
इसी बार्डीगाड लाइन में मकानों की एक लेन के आगे बेलपत्री का पेड़ था। ऐसे में उस लाइन को बेल वाली लाइन कहा जाता था। पंडित, राजपूत, सफाईकर्मी, मजदूर, धोबी सभी तरह के लोग वहां रहते थे। पड़ोसियों में काफी एका था। दूख-सुख में सभी एक दूसरे के काम आते थे। बेल वाली लाइन में दस नंबर के कमरे में एक सरकारी विभाग का चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी रहता था। उसकी पत्नी का नाम लोगों ने दस नंबरी रख दिया। दस नंबरी को अपने इस नाम से जहा भी रंज नहीं था। वह इस नाम पर गर्व करती थी। ये नाम रखने वाले भी बड़े कमाल के होते हैं। कैसे उनके मन में ख्याल आते हैं और हो जाता है किसी का भी नामकरण। जब स्कूल जाने की मैने शुरूआत की तो मेरा रंग काफी गोरा था। तब बच्चों ने मेरा नाम मलहम रख दिया। बच्चे मुझे चिढ़ाते और मैं यही कोसता कि किसी धूर्त ने मेरा यह नामकरण किया। फिर छठी जमात में गया तो वहां नए बच्चे मिले। मैं खुश था कि अब मलहम नाम से छुटकारा मिल जाएगा। पर मेरी किस्मत ऐसी नहीं थी। नए बच्चों ने मेरा नाम भानु बुढ़िया रख दिया। छठी करने के बाद मैने पिताजी से अपना स्कूल बदलवाया। क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मेरा परमानेंट नाम भानु बुढ़िया पड़ जाए। स्कूल बदला और मैं सातवी से डीएवी इंटर कॉलेज में जाने लगा। वहां मुझे ऐसे नामों से मुक्ति मिल गई। पर वहां शायद ही कोई शिक्षक ऐसा नहीं था, जिसका बच्चों ने कोई नाम नहीं रखा था। आदत, रंग, कद-काठी, आदि के अनुरूप किसी को गुटका, तो कोई टीचर पहाड़ी चूहा, तो कोई लंबू, कोई कालिया के नाम से फैमस था। तब मुझे यह बात समझ आ गई कि ऐसे नामों की चिंता नहीं करनी चाहिए। व्यक्ति को अपने कर्म पर ही ध्यान देना चाहिए।
दस नंबरी एक सीधी साधी महिला थी। उसके कोई बच्चे नहीं थे। उसने बकरियां पाली हुई थी। किसी से परिचय होने पर वह अपना नाम दस नंबरी ही बताने लगी थी। तब महीने में एक बार इस मोहल्ले की करीब आठ दस महिलाएं दस नंबरी के नेतृत्व में फिल्म देखने जरूर जाती। फिल्म के लिए सभी अपना-अपना खर्च करते। दोपहर में वह बकरियां चराने पास के जंगल जाती। दस नंबरी के सदव्यवहार से बच्चे भी खुश रहते थे। गर्मियों में स्कूल की छुट्टी पर हम बच्चे इस जंगल में धमाचौकड़ी मचाते। कभी-कभी पिकनिक का प्रोग्राम बनता तो बच्चे घर से बर्तन, चावल, चीनी आदि लेकर जंगल पहुंचते। वहां लकड़ियां एकत्र कर चूल्हा जलाकर मीठे चावल बनाते। कभी खिचड़ी का भी प्रोग्राम बनता। एक दिन हम मीठे चावल बना रहे थे। समीप ही दस नंबरी बकरियां चरा रही थी। वह पास आई और बोली कि खीर बनाओ। हमने कहा दूध कहां से आएगा। इस पर उसने कहा कि मेरी निमरी (बकरी का नाम) का दूध निकाल लो। बच्चों ने ऐसा ही किया। सचमुच दस नंबरी का प्यार उस खीर में घुल गया। उस खीर का स्वाद मैं आज तक नहीं भुला।
समय बदला करीब वर्ष 2008 के बाद राष्ट्रपति आशिया के किराएदारों को कमरे खाली करने का फरमान आया। तब तक वहां के कमरों का किराया भी बढ़कर दो से तीन सौ तक पहुंच गया था। फिर भी यह काफी कम था। सौ साल पुरानी बैरिकें खंडहर होने लगी थी। कुछ लोगों ने अपने मकान बना लिए और कई किराए के मकान में चले गए। अब वहां मकानों के खंडहर ही शेष बचे हैं। कई कमरों की छत तक गायब है। न तो बेल वाली लाइन में बेल पत्री का पेड़ ही बचा है और न ही दस नंबरी इस संसार में है। वैसे अब दुनियां में दस नंबरियों की कमी नहीं है। नेता, पुलिस, वकील, पत्रकार आदि की जमात में दस नंबरी नजर आ जाएंगे। पर उस दस नंबरी की तरह नहीं, जो खुद को दस नंबरी कहलाने में गर्व महसूस करें। आजकल के दस नंबरी तो दूसरों का खून चूसकर खुद को संत कहलना पसंद करते हैं। हां अभी भी दस नंबर का कमरा खंडहर के रूप में नजर आता है। कैनाल रोड से उसकी खिड़की आज भी वैसी नजर आती है, जैसे चालीस साल पहले थी। अक्सर कैनाल रोड की तरफ मार्निंग वाक में जाते समय दस नंबर के कमरे की खिड़की देखकर मरे कदम रुक जाते हैं। मुझे लगता है कि भीतर से दस नंबरी यही गाना गुनगुना रही है कि- दुनियां एक नंबरी और मैं दस नंबरी।
भानु बंगवाल
बार्डीगाड लाइन में हर कमरे के आगे व पीछे काफी खाली जमीन थी। ऐसे में वहां रहने वाले लोग अपने कमरे के सामने व पीछे की जमीन पर अपनी जरूरत की सब्जियां भी उगाते थे।
इसी बार्डीगाड लाइन में मकानों की एक लेन के आगे बेलपत्री का पेड़ था। ऐसे में उस लाइन को बेल वाली लाइन कहा जाता था। पंडित, राजपूत, सफाईकर्मी, मजदूर, धोबी सभी तरह के लोग वहां रहते थे। पड़ोसियों में काफी एका था। दूख-सुख में सभी एक दूसरे के काम आते थे। बेल वाली लाइन में दस नंबर के कमरे में एक सरकारी विभाग का चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी रहता था। उसकी पत्नी का नाम लोगों ने दस नंबरी रख दिया। दस नंबरी को अपने इस नाम से जहा भी रंज नहीं था। वह इस नाम पर गर्व करती थी। ये नाम रखने वाले भी बड़े कमाल के होते हैं। कैसे उनके मन में ख्याल आते हैं और हो जाता है किसी का भी नामकरण। जब स्कूल जाने की मैने शुरूआत की तो मेरा रंग काफी गोरा था। तब बच्चों ने मेरा नाम मलहम रख दिया। बच्चे मुझे चिढ़ाते और मैं यही कोसता कि किसी धूर्त ने मेरा यह नामकरण किया। फिर छठी जमात में गया तो वहां नए बच्चे मिले। मैं खुश था कि अब मलहम नाम से छुटकारा मिल जाएगा। पर मेरी किस्मत ऐसी नहीं थी। नए बच्चों ने मेरा नाम भानु बुढ़िया रख दिया। छठी करने के बाद मैने पिताजी से अपना स्कूल बदलवाया। क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मेरा परमानेंट नाम भानु बुढ़िया पड़ जाए। स्कूल बदला और मैं सातवी से डीएवी इंटर कॉलेज में जाने लगा। वहां मुझे ऐसे नामों से मुक्ति मिल गई। पर वहां शायद ही कोई शिक्षक ऐसा नहीं था, जिसका बच्चों ने कोई नाम नहीं रखा था। आदत, रंग, कद-काठी, आदि के अनुरूप किसी को गुटका, तो कोई टीचर पहाड़ी चूहा, तो कोई लंबू, कोई कालिया के नाम से फैमस था। तब मुझे यह बात समझ आ गई कि ऐसे नामों की चिंता नहीं करनी चाहिए। व्यक्ति को अपने कर्म पर ही ध्यान देना चाहिए।
दस नंबरी एक सीधी साधी महिला थी। उसके कोई बच्चे नहीं थे। उसने बकरियां पाली हुई थी। किसी से परिचय होने पर वह अपना नाम दस नंबरी ही बताने लगी थी। तब महीने में एक बार इस मोहल्ले की करीब आठ दस महिलाएं दस नंबरी के नेतृत्व में फिल्म देखने जरूर जाती। फिल्म के लिए सभी अपना-अपना खर्च करते। दोपहर में वह बकरियां चराने पास के जंगल जाती। दस नंबरी के सदव्यवहार से बच्चे भी खुश रहते थे। गर्मियों में स्कूल की छुट्टी पर हम बच्चे इस जंगल में धमाचौकड़ी मचाते। कभी-कभी पिकनिक का प्रोग्राम बनता तो बच्चे घर से बर्तन, चावल, चीनी आदि लेकर जंगल पहुंचते। वहां लकड़ियां एकत्र कर चूल्हा जलाकर मीठे चावल बनाते। कभी खिचड़ी का भी प्रोग्राम बनता। एक दिन हम मीठे चावल बना रहे थे। समीप ही दस नंबरी बकरियां चरा रही थी। वह पास आई और बोली कि खीर बनाओ। हमने कहा दूध कहां से आएगा। इस पर उसने कहा कि मेरी निमरी (बकरी का नाम) का दूध निकाल लो। बच्चों ने ऐसा ही किया। सचमुच दस नंबरी का प्यार उस खीर में घुल गया। उस खीर का स्वाद मैं आज तक नहीं भुला।
समय बदला करीब वर्ष 2008 के बाद राष्ट्रपति आशिया के किराएदारों को कमरे खाली करने का फरमान आया। तब तक वहां के कमरों का किराया भी बढ़कर दो से तीन सौ तक पहुंच गया था। फिर भी यह काफी कम था। सौ साल पुरानी बैरिकें खंडहर होने लगी थी। कुछ लोगों ने अपने मकान बना लिए और कई किराए के मकान में चले गए। अब वहां मकानों के खंडहर ही शेष बचे हैं। कई कमरों की छत तक गायब है। न तो बेल वाली लाइन में बेल पत्री का पेड़ ही बचा है और न ही दस नंबरी इस संसार में है। वैसे अब दुनियां में दस नंबरियों की कमी नहीं है। नेता, पुलिस, वकील, पत्रकार आदि की जमात में दस नंबरी नजर आ जाएंगे। पर उस दस नंबरी की तरह नहीं, जो खुद को दस नंबरी कहलाने में गर्व महसूस करें। आजकल के दस नंबरी तो दूसरों का खून चूसकर खुद को संत कहलना पसंद करते हैं। हां अभी भी दस नंबर का कमरा खंडहर के रूप में नजर आता है। कैनाल रोड से उसकी खिड़की आज भी वैसी नजर आती है, जैसे चालीस साल पहले थी। अक्सर कैनाल रोड की तरफ मार्निंग वाक में जाते समय दस नंबर के कमरे की खिड़की देखकर मरे कदम रुक जाते हैं। मुझे लगता है कि भीतर से दस नंबरी यही गाना गुनगुना रही है कि- दुनियां एक नंबरी और मैं दस नंबरी।
भानु बंगवाल
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