Tuesday, 10 April 2012

अनजान शहर में पहला मित्र

मित्र बनाना और मित्रता निभाना दोनों में काफी फर्क है। क्योंकि मित्रों की संख्या तो काफी हो सकती है, लेकिन मित्रता उनमें से सभी नहीं निभा पाते हैं। सच तो यह है कि इस व्यावसायिक दौर में दोस्त को भी लोग लाभ-हानि के तराजू में तौलते हैं। लोग मित्र बनाने से पहले यह आंकलन लगाते हैं कि इससे दोस्ती करके उसे क्या लाभ होने वाला है। ऐसे लोगों के साथ दोस्ती ज्यादा दिन नहीं निभ पाती। इसके बावजूद समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो सच्ची मित्रता निभाते हैं। ऐसे लोगों के मन में कहीं स्वार्थ नहीं होता। मेरी नजर में सच्चा मित्र वही है, जो हमें हमारी कमजोरी बताए। सामने चापलूसी करने वाले तो कई मिल जाएंगे, लेकिन हमें सही व गलत का एहसास कराने वाला ही अच्छे मित्र साबित होते हैं।
किस व्यक्ति को कब किस मोड़ पर कोई मिल जाए और मित्र बन जाए, यह कहा नहीं जा सकता। वर्ष 1994 में मेरा तबादला देहरादून से ऋषिकेश कर दिया गया था। ऋषिकेश मेरे लिए नया शहर था। मेरे पत्रकार मित्र हर्षबर्धन बहुगुणा ने ऋषिकेश में अपने ताऊजी के घर का पता मुझे दिया। कहा कि मकान आदि की समस्या होगी तो उनके पास चले जाना। मित्र के ताऊजी का सबसे छोटा बेटा मुझे पहले से पहचानता था। वह अक्सर देहरादून में बहुगुणा के घर आता जाता था। ऋषिकेश में जाकर मैं मित्र के ताऊजी के घर जाने की बजाय होटल में रहने लगा। साथ ही अपने कार्यालय के आसपास कमरे की तलाश शुरू कर दी। इस तरह करीब एक सप्ताह बीत गया।
एक दोपहर को मैं मित्र के ताऊजी के घर गया। वहां उसके छोटे बेटे अनिल से मेरी मुलाकात हुई। मैने अनिल से किराये का कमरा तलाशने को कहा। इस पर अनिल ने कहा कि किराये में क्यों रहोगे, उसके घर में काफी जगह है। जब तक ठीक लगे यहीं रह लो। मैने मना कर दिया, लेकिन अगले ही दिन अनिल होटल से जबरदस्ती मेरा सामान अपने घर ले आया और मैं उनके घर ही रहने लगा। अनजान शहर में वह मेरा पहला मित्र था।
अनिल से बड़े दो भाई और हैं। सबसे बड़ा निजी चिकित्सक है और क्षेत्र में उसकी काफी अच्छी प्रैक्टिस चलती है। उसके बाद दूसरे नंबर के भाई ने कुछ दुकानें खोली हुई थी। वहीं कंप्यूटर व टाइपिंग इंस्टीट्यूट, फोटो स्टेट आदि का काम किया था। अनिल ने जूनियर हाई स्कूल चला रखा था। धीरे-धीरे मैं उनके बीच ऐसा घुलमिल गया कि लगने लगा कि अपने ही घर रह रहा हूं। तीनों भाई छोटे-बड़े निर्णय लेने के बाद अपने पिताजी की सलाह जरूर लेते थे। साथ ही उनका आदर भी करते थे और उनसे डरते भी थे। कई बार तो वे अपने पिताजी से कोई बात मनवाने के लिए मुझे ही आगे कर देते थे। उनके पिताजी मेरी सलाह को मान भी लेते थे। ऐसे में मुझे खुद पर गर्व भी होता था।
सामूहिक परिवार में आपसी कामकाज का बंटवारा। आपसी प्रेम, कड़ी मेहनत और कठिन दिनचर्या सभी कुछ तो था उनके घर में। सुबह डॉक्टर की पत्नी और मां दोनों ही उठ जाती और घर के कामकाज में जुट जाती। पैसा होने के बावजूद नौकर चाकर रखने की बजाय महिलाएं खुद ही गाय व भैंस की सेवा करती। बड़ा भाई देर रात तक मरीजों की सेवा करता। चाहे रात के 12 बज रहे हों या फिर तीन बजे का समय हो। गेट खड़खड़ाने की आबाज होते ही पता लग जाता कि कोई मरीज आ गया है। रात को ही उसका परीक्षण कर दवा दे दी जाती। इस घर से मरीजों को यह नहीं कहा जाता कि ये कोई वक्त है, कल आना। अनिल सुबह-सुबह उठकर खेतों में खड़ी फसल को पानी देने पहुंच जाता। तड़के उठना और देर रात को सोना इस घर के हर सदस्यों की आदत थी। इस घर में कब मुझे रहते छह माह बीते पता ही नहीं चला। खैर इस दौरान मैने कार्यालय के पास कमरा तलाश कर लिया था। वहां रहने लगा साथ ही कई बार मित्र के घर भी रहने चला जाता। कई साल से मैं ऋषिकेश नहीं गया। न ही फोन से मित्र से कोई बात होती, लेकिन जीवन में कड़ी मेहनत करने का फलसफा मैने उनसे ही सीखा। हर कोई नया काम करने से पहले मैं उन्हें जरूर याद करता हूं और मुझे हमेशा वे याद रहेंगे।
                                                                                                             भानु बंगवाल

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