Friday, 13 April 2012

यादें ताजा कर गया ये मौसम

पुरानी यादों को हम अक्सर याद करते हैं।साथ ही वर्तमान की घटनाओं की तुलना भी पुरानी घटनाओं से करते हैं।फिर यह आंकलन करते हैं कि कौन सी घटना बड़ी थी।अक्सर फिर हम पुरानी घटना को ही बड़ा करार देते हैं। व्यक्ति के जीवन में हर दिन बदलाव आता है, कई बार  बदलाव इतना मामूली होता है कि इसका हमें अंदाज तक नहीं रहता।इसी तरह प्रकृति में भी निरंतर बदलाव आता है। बदलाव प्रकृति का नियम है। इसके साथ ही प्रकृति भी कई बार व्यक्ति की ही भांति पुरानी बातों को दोहराती है।यानि पुरानी बातों को फिर से याद करने का समय आ जाता है।
अप्रैल का महीना।उल्लास व उत्साह के दिन।खेतों में फसल लहलहाती है।बाग-बगीचों में फूल खिले होते हैं। प्रकृति भी मानों पूरे श्रृंगार से सजी रहती है।स्कूली बच्चों में इसलिए नया उत्साह होता है कि शिक्षा का नया सत्र शुरू हो जाता है।नई क्लास व नई टीचर, नए दोस्त, सभी कुछ उत्साह लाने वाला होता है। वहीं चित्रकार के लिए पूरी प्रकृति सजी रहती है।प्रकृति प्रेमी कवि के लिए तो इस समय लिखने के लिए काफी कुछ खजाना मिल जाता है।फिर भी यह महीना सनकी मिजाज का भी होता है। यह मैं नहीं कह रहा हूं, बल्कि एक अंग्रेज साहित्यकार ने इस महीने को श्रृंगार से लदी सुंदर व सनकी महिला की संज्ञा दी है। ऐसा मैने ग्यारहवीं में अंग्रेजी की एक कविता में पढ़ा था।
बैशाखी के दिन सुबह से ही देहरादून में बारिश होने लगी।सुबह से ही इतनी ठंड हुई कि हाथ-पांव तक सुन्न होने लगे। लोगों ने आलमारी व संदूक से गर्म कपड़े निकाल लिए।फिर मुझे करीब 29 साल पहले की याद ताजा हो गई। 14 अप्रैल 1983 को मेरी बड़ी बहिन की शादी थी। उस दिन पूर्वाहन 11 बजे से ही बारिश शुरू हो गई। मिजाज के अनुरूप मौसम ने अंगड़ाई ली और तेज हवा भी चलने लगी।ओले भी  गिरे। शामियाना हवा से गिर गया।तब वैडिंग प्वाइंट होते नहीं थे। मैदान में ही शादी के टैंट लगाए जाते थे।सभी को चिंता होने लगी कि क्या होगा। उस समय हम राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान परिसर में रहते थे। मेरे पिताजी वहीं नौकरी पर थे। जब मौसम ने रंग नहीं बदला तो संस्थान के एक हॉल में शादी के लिए व्यवस्थाएं की गई।कनात व कुर्सियां  हॉल में लगा दी गई।भोजन की व्यवस्था भी वहीं हुई।शाम को बारात आई वो भी भीगती हुई। बाहर से आए मेहमान भी सर्दी से कांप रहे थे।उन्हें अपने घर व आसपड़ोस से लोगों के घर से स्वैटर की व्यवस्था की गई।इससे सहज ही यह अंदाज लगाया कि जा सकता है कि कितनी सामुदायिक भावना थी उन दिनों के लोगोंे में। शादी के बाद कई लोग स्वैटर भी पहनकर साथ ले गए।कुछ ने बाद में वापस लौटा दी और कई का लौटाने के लिए देहरादून फिर से वापस आना नहीं हुआ।
आज भी मौसम यही मिजाज दोहरा रहा है।देहरादून समेत पूरे गढ़वाल में सुबह से ही बारिश हो रही है। आज बैशाखी के दिन शादियों की भी भरमार है।जहां शादी है वहां लोगों की चिंता भी स्वाभाविक है। सभी इंद्रदेव की प्रार्थना कर रहे हैं। वहीं शादियों में आमंत्रित होने वाले लोग भी बारिश में शादी में कैसे शामिल हों, इसकी प्लानिंग कर रहे हैं। खैर जो होना है वो होकर रहेगा।फिर भी अप्रैल के महीने का यह सनकी मिजाज मुझे हमेशा भाता है।
                                                                             भानु बंगवाल     

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