सच ही कहा गया कि व्यक्ति जैसा कहता है, सोचता है और करता है, वैसा ही बन जाता है। अच्छा सोचो, कहो और करोगे तो भीतर से अच्छाई ही निकलेगी। इस दौड़धूप भरी जिंदगी में अब तो व्यक्ति दूसरे की मदद करने में भी कई बार सोचता है। मेरे जीवन का अनुभव यही रहा कि कई बार लोग किसी की सहायता करने से पहले उसे तोलते हैं। यह देखते हैं कि उसकी सहायता करने के बाद उन्हें क्या लाभ मिलेगा। तभी व्यक्ति मदद को तैयार होता है। इसके विपरीत कई लोग ऐसे होते हैं जो अनजान की भी बगैर किसी लालच में मदद करते हैं। अनजान की मदद करना आसान काम नहीं है। कई बार आप किसी की मदद करना भी चाहें तो दूसरा लेने से मना कर देता है। स्वाभिमान के चलते या फिर ऐसा डर के कारण भी होता है। एक बार मैं रात के समय आफिस से घर आ रहा था। करीब 12 बजे का समय था। सड़क पर करीब 21 साल का युवा मुझे नजर आया। उसके कंधे में बड़ा सा बैग था। सुनसान सड़क पर वह पैदल ही चल रहा था। गरमी के दिन थे। पसीने से तरबतर युवक को देखकर मुझे उस पर तरस आया। मैने मोटर साइकिल रोकी और उससे पूछा वह कहां जाएगा। इस पर उसने बताया तो मैने उसे मोटर साइकिल पर बैठने को कहा। मैने कहा कि मैं उसी दिशा की तरफ जा रहा हूं। रास्ते में उसे छोड़ दूंगा। उसे कुछ ही दूर पैदल चलना पड़ेगा। युवक नहीं माना। कहने लगा कि वह स्वयं चला जाएगा। काफी जिद करने पर वह मुझ पर ही गुस्सा होने लगा। उसे पैदल चलना ही मंजूर था, पर अनजान का साथ मंजूर नहीं था। यह सच ही है कि अनजान पर आजकल किसी को विश्वासन ही नहीं रहा। उसे डर था कि कहीं रास्ते में मैं उसे लूट न लूं।
कितना बदल गया यह समाज। आज किसी पर विश्वास ही नहीं रहा। लोग एक-दूसरे के विश्वास का गला काट रहे हैं। अपने ही धोखा देते हैं, तो ऐसे में उक्त युवक का मेरे साथ न चलने का निर्णय उसके हिसाब से सही ही था। उसे करीब पांच किलोमीटर दूर पैदल चलना मंजूर था, लेकिन दूसरे के साथ बैठकर रिस्क लेना मंजूर नहीं था। रिस्क तो मैं भी ले रहा था। कई बार तो लिफ्ट लेने के बाद मदद करने वाले को ही लूट लिया जाता है। ऐसे में तो मुझे और उस युवक को ही एक-दूसरे को अविश्वास की भावना से देखना चाहिए था। इस दिन मुझे उस युवक पर कुछ खीज जरूर हुई। मैने सोचा कि आगे से किसी परेशान व्यक्ति की मदद नहीं करूंगा। क्यों करूं। क्या मैने मदद करने का ठेका लिया है। फिर मैं यही सोचने लगा कि अच्छा सोचो, अच्छा करो तो अंजाम भी अच्छा ही होता है।
भानु बंगवाल
कितना बदल गया यह समाज। आज किसी पर विश्वास ही नहीं रहा। लोग एक-दूसरे के विश्वास का गला काट रहे हैं। अपने ही धोखा देते हैं, तो ऐसे में उक्त युवक का मेरे साथ न चलने का निर्णय उसके हिसाब से सही ही था। उसे करीब पांच किलोमीटर दूर पैदल चलना मंजूर था, लेकिन दूसरे के साथ बैठकर रिस्क लेना मंजूर नहीं था। रिस्क तो मैं भी ले रहा था। कई बार तो लिफ्ट लेने के बाद मदद करने वाले को ही लूट लिया जाता है। ऐसे में तो मुझे और उस युवक को ही एक-दूसरे को अविश्वास की भावना से देखना चाहिए था। इस दिन मुझे उस युवक पर कुछ खीज जरूर हुई। मैने सोचा कि आगे से किसी परेशान व्यक्ति की मदद नहीं करूंगा। क्यों करूं। क्या मैने मदद करने का ठेका लिया है। फिर मैं यही सोचने लगा कि अच्छा सोचो, अच्छा करो तो अंजाम भी अच्छा ही होता है।
भानु बंगवाल
No comments:
Post a Comment