Wednesday, 11 July 2012

आखिर लग ही गया शतक….

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कब समय बीता इसका पता ही नहीं चला। मेरा 100 वां ब्लॉग आपके सामने है। इन सौ ब्लॉग तक का सफर पूरा करने में मेरे हर ब्लॉग का योगदान है। एक-एक कर लिखता रहा और संख्या सौ तक पहुंच गई। आज से पांच माह पहले तक मुझे यह तो पता था कि ब्लॉग क्या होता है, लेकिन मैने न तो कभी किसी का ब्लॉग पढ़ा था और न ही कभी लिखा। हालांकि इससे पहले मेरे आफिस के साथियों ने जागरण जनशन में मेरा एकाउंट बना दिया था, लेकिन तब उस पर मैने एक शब्द तक नहीं लिखा। मैं यही कहता कि समय ही नहीं मिलता। यहां तो नौकरी से फुर्सत नहीं। कंप्यूटर के आगे सुबह दस बजे से देर रात तक बैठना पड़ता है। फिर ब्लॉग कब लिखा जाए। हालांकि मेरी आदत छोटी-छोटी घटनाओं को किस्से के रूप में सुनाने की रही और मैं हमेशा से यही सोचता रहता कि इन किस्सों को शब्दों में उतारुंगा, पर उतार नहीं सका।
एक दिन ओपन यूनिवर्सिटी हल्द्वानी की ओर से पत्रकारिता के छात्रों की कार्यशाला में भाग लेने मैं गया हुआ था। देहरादून में आयोजित इस कार्यशाला में पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष गोविंद सिंह ब्लॉग पर चर्चा कर रहे थे। उन्होंने कहा कि समाचार पत्रों में डेस्क पर बैठा व्यक्ति लिखना भूल जाता है। उसे लखने की आदत हमेशा रखनी चाहिए। चाहे ब्लॉग के रूप में क्यों न हो। वहीं से मेरी इच्छा ब्लॉग लिखने की हुई। सच कहो तो मैं गोविंद सिंह से ब्लॉग लिखने को प्रेरित हुआ। वही मेरे प्रेरक बने। फिर आफिस के सहयोगी गोविंद पोखरिया से मैने पूछा कि ब्लॉग के लिए अकाउंट कैसे बनाया जाता है। पोखरिया ने बताया कि उसने भी ब्लॉग स्पॉट में एकाउंट बनाया हुआ है। घर में छुट्टी के दिन मैने अपने 14 वर्षीय बेटे को अकाउंट बनाने को कहा और उसने बना भी दिया। अकाउंट तो मेरा पहले से भी था, लेकिन जागरण जनशन में वह खुल नहीं रहा। ऐसे में मैं ब्लॉग स्पॉट में ही ब्लॉग लिखने लगा। मेरे एक अन्य मित्र हरीश भट्ट ने मुझे जंनशन में ब्लॉग लिखने को प्रेरित किया। पहला ब्लॉग खुल ही नहीं रहा था, इस पर मुझे नया एकाउंट बनाना पड़ा।
मैं नियमित रूप से हर दिन एक ब्लॉग लिखने लगा। सुबह बिस्तर से उठते सबसे पहला मेरा काम यही होता। फिर नहाना धोना, चाय नाश्ता आदि करता। जब सुबह ऑफिस को देरी होती, तो देर रात को समय निकालता। मुझे ब्लॉग लिखने का नशा बढ़ता जा रहा था और मुझे इसके लिए समय की समस्या आड़े नहीं आई। सच कहो कि मानव प्रवृत्ति ऐसी है कि किसी काम को करने से पहले हम उसमें लेकिन, अगर, मगर, किंतु व परंतु के कई पेंच लगा देते हैं। कई शंकाएं हमारे मन में जन्म लेती हैं, लेकिन जब काम शुरू करो तो वह काफी आसान सा लगने लगता है। लगातार मैं ब्लॉग लिख रहा था। कई बार ऐसा भी हुआ कि जिस ब्लॉग को मैं दिल से लिख रहा हूं, वह कम ही खुला। ऐसे ब्लॉग में मेरा लीला की चिट्ठी शीर्षक का ब्लॉग था। जिसे मैने मन लगाकार लिखा, लेकिन वही कम खोला गया। इसके विपरीत अन्य ब्लॉग को मैं मात्र बीस मिनट में ही लिख मारता रहा और वे काफी खुले भी। ब्लॉग पढ़ने वाले सभी मित्रों का दिल से शुक्रिया और जो अभी तक नहीं पढ़ पाए उनसे पढ़ने की उम्मीद करता हूं।
लगातार ब्लॉग लिखना मेरी आदत में शुमार हो गया। फिर एक दिन मेरा घर का कंप्यूटर खराब हो गया। ठीक करने के लिए कंप्यूटर के मैकेनिक को फोन किया और वह कंप्यूटर उठाकर अपने साथ ले गया। एक दिन बीता, दो दिन। मुझे लगने लगा कि मैं बीमार हो गया हूं। एक मित्र डॉक्टर के पास गया। मैने कहा कि बुखार है। वीपी भी शायद नार्मल नहीं है। इस पर डॉक्टर ने चेकअप किया, तो सभी कुछ नार्मल पाया। तब मुझे अहसास हुआ कि जैसे नशेड़ी को शराब या नशा न मिलने से छटपटाहट होती है, ठीक उसी तरह मेरी स्थिति भी ब्लॉग न लिखने से हो रही है। ये इंटरनेट की दुनियां का नशा ही ऐसा है। मेरे एक मित्र तो टॉयलेट में मोबाइल लेकर बैठते हैं। उन्हें सुबह चेट का वक्त मिलता है। खैर मैने खुद पर नियंत्रण किया और फिर लगातार लिखने की बजाय दो दिन में एक ब्लॉग लिखने की आदत डाली।
फेसबुक में शुरूआती दौर से ही मैं अपने ब्लॉग शेयर कर रहा था। इसमें भी कई तरह के मित्र मिले। कई तो ब्लॉग को पढ़ते हैं, लेकिन कई मित्र तो ऐसे हैं कि इधर ब्लॉग शेयर किया और एक सेकेंड के भीतर ही ब्लॉग लाइक हो गया। कमाल की पढ़ने की स्पीड है मेरे ऐसे मित्रों की। खैर किसी को न तो जबरन पढ़ाया जाता है और न ही किसी को पढ़ने से मना किया जा सकता। व्यक्ति की अपनी-अपनी च्वाइस होती है। फिर भी मुझे वे लोग ही पसंद हैं जो लाइक पर क्लिक करने की बजाय ब्लॉग को पढ़ते होंगे। मेरा काम तो बस लिखना है। चाहे वह किसी को पसंद आए या नहीं। अब रिजल्ट की परवाह भी मैने छोड़ दी है। जब मेने अपने कई मित्रों को ब्लॉग लिखने को प्रेरित करने का प्रयास किया तो उनका कहना था कि इससे क्या फायदा होगा। कुछ मिलेगा भी। क्यों फिजूल में समय बर्बाद कर रहा है। उन मित्रों को मैं कैसे समझाऊं कि निरंतर लिखने से मुझे वह दौलत मिलती है, जो मैं कोई भी बड़ी कमीत अदा करके भी नहीं खरीद सकता। वह दौलत है आत्मशांति।
भानु बंगवाल

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