Saturday, 14 July 2012

आप और हम से शुरू और तू-तू मैं-मैं पर खत्म

पहले आप और हम। फिर हम और तुम। इसके बाद मैं और तू। फिर अंत में तू-तू-मैं-मैं। जी हां आजकल तो प्यार का यही हश्र होता नजर आ रहा है। जो पहले एक-दूसरे के लिए मर मिटने की कसम खाते फिरते हैं, वही बाद में एक दूसरे के जानी दुश्मन बनने लगते हैं। क्या प्यार इसी को कहते हैं कि पहले जो सबसे अच्छा लगता है, बाद में वही बेवफा, फरेबी, धोखेबाज, स्वार्थी हो जाता है। व्यक्ति भी वही है, उसकी आदत भी वही है, शक्ल व सूरत भी वही है, फिर अचानक क्यों एक-दूसरे के प्रति सोच में बदलाव आ जाता है।
प्यार शब्द ऐसा है कि इसमें लिखने का साहस मझमें भी नहीं हो रहा है, फिर भी लिखने की कोशिश कर रहा हूं। बचपन में जब बच्चों से पूछो कि वह किससे ज्यादा प्यार करता है, तो वह आस-पडो़स के बच्चों की बजाय अपनी मां या पिता को ही सर्वोपरी रखता है। फिर उसके मन में भेदभाव की दीवार खींचने का भी हम ही प्रयास करते हैं। इस पर भी उसे कुरेदते हैं कि मम्मी और डैडी में कौन ज्यादा अच्छे लगते हैं। कभी बच्चा पापा से नाराज होता है तो मम्मी को अच्छा बताता है और जब मां से नाराज होता है तो पिता को। ऐसे में कभी मां खुश होती है और कभी पिता। यही नहीं दादा-दादी, नाना-नानी के आगे भी ऐसा ही सवाल पूछा जाता है। धीरे-धीरे बच्चा भी  समझने लगता है कि जिसे अच्छा बताओ वही खुश हो जाता है। कई बार तो उसे खुश होने वाला ईनाम के रूप में टॉफी या चाकलेट भी देता है। यहीं से बच्चे के मन में स्वार्थ की बुनियाद भी जन्म लेने लगती है।
बच्चा बड़ा होने लगता है। माता-पिता उसे बच्चा ही समझते हैं और उसकी माता-पिता से दूरियां बढ़ने लगती है। वह अपने दोस्तों व मित्रों को जो बात बताता है, वही अपने माता-पिता से छिपाने लगता है। तब वह अपनी उम्र के बच्चों के साथ रहना ही ज्यादा पसंद करता है। यह स्वभाविक भी है, लेकिन माता-पिता को भी बड़ती उम्र के साथ ही बच्चों से दोस्ताना व्यवहार करना चाहिए। युवावस्था में आते-आते सोच बदलने लगती है और प्यार की परिभाषा भी उनके लिए बदल जाती है। जब युवक किसी युवती और युवती किसी युवक की तरफ आकर्षित होते हैं तो पहला आकर्षण रूप, रंग को देखकर ही होता है। पहली नजर का यह आकर्षण प्यार नहीं, बल्कि महज आकर्षण होता है। इसी को युवा प्यार कहते हैं और जब यह प्यार परवान चढ़ने लगता है तो वे क्या गलत, क्या सही आदि का निर्णय भी नहीं कर पाते। फिर वही कहानी। यदि शादी कर ली तो प्यार सफल और यदि नहीं हुई तो असफल। इसी तरह माता-पिता की मर्जी से चलने वाले भी शादी के बाद एक-दूसरे के प्यार की कसमें खाते हैं। कई बार तो अपनी मर्जी के खिलाफ और माता-पिता की मर्जी से शादी करने वाले ज्यादा सुखी रहते हैं और कई बार अपनी मर्जी से शादी करने वाले ही दुखी रहते हैं। कई बार नौबत आत्महत्या या तलाक तक पहुंच जाती है, जो कि समस्या का समाधान नहीं है। 
वैसे मेरी नजर में प्यार की न तो कोई उम्र की सीमा है और न ही कोई बंधन। लेकिन, इस प्यार का अर्थ यह कतई नहीं लगाना चाहिए कि जिससे प्यार करते हो उससे शादी भी करो। जिसे आप अपनी हर सुख-दुख की बातें बताते हैं, जो आपके सुख-दुख में साथ दे, आपकी भावनाओं को समझे, जिस पर आपको विश्वास हो, वही आपको प्यारा होता है। वही आपका प्यार है। यह प्यार भाई, बहन, पिता, माता, पुत्र, बेटी हर किसी से हो सकता है। प्यार करके शादी करना ही एकमात्र प्यार नहीं है। प्यार में शादी करने वालों के लिए तो सही मायने में प्यार की परीक्षा भी शादी के बाद होती है। साथ-साथ रहने पर छोटी-छोटी बातों का यदि पति व पत्नी ने ख्याल नहीं रखा। एक दूसरे की भावनाओं को नहीं समझा, तेरी मां व मेरी मां, तेरा भाई व मेरा भाई, तेरा व मेरा का भाव मन में रखा तो जल्द ही दोनो के बीच टकराव की स्थिति पैदा होने लगती है। यदि- तेरा नहीं, मेरा नहीं, सब कुछ हमारा है, की भावना मन में रहेगी तो शायद टकराव न हो। पत्नी का काम क्या है और पति का क्या। क्या खाना बनाना पत्नी का काम है और पति का काम नौकरी करना या पैसा कमाना है। पति क्यों नहीं घर के काम में हाथ बंटाता। क्यों नहीं दोनों मिलजुलकर काम करते। क्यों घूमने के लिए पति दोस्तों के साथ अकेला जाता है। क्यों नहीं वह पत्नी और बच्चों के साथ ही मौजमस्ती के लिए समय निकालता। यदि वह परिवार के लिए समय निकाले तो पत्नी व बच्चे भी दोस्त की तरह व्यवहार करेंगे। ऐसे में परिवार में हमेशा मिठास रहेगी।  क्योंकि एक सच यह है कि यदि किसी भी महिला या पुरुष को दफ्तर में चाहे कितना भी खराब माहौल मिले, लेकिन घर का माहौल अच्छा हो तो पूरा परिवार सदैव खुश रहेगा। यह बात मैं ऐसे ही नहीं कह रहा हूं। क्योंकि शादी के पंद्रह साल बीतने के बाद भी मेरा कभी पत्नी से झगड़ा हुआ है, यह मुझे आज तक याद नहीं।
भानु बंगवाल

No comments:

Post a Comment