जब मैं छोटो था, तब मेरे मोहल्ले में एक लोक कलाकार रहता था। रामप्रकाश बगछट नाम का यह कलाकार अपनी नौकरी की तलाश में बेले गए पापड़ को एक गीत के रूप में सुनाता था। मदर इंडिया के गीत- नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे, ढूंढू मैं सांवरिया, की तर्ज पर वह डॉक्टर-डॉक्टर द्वारे-द्वारे, ढूंढू मैं नौकरिया, गाया करता था। जब नजीबाबाद में आकाशवाणी केंद्र खुला तो इस कलाकार के गढ़वाली गीत रेडियो में सुनाई देने लगे, तब जाकर मोहल्ले के लोगों को उसकी अहमियत पता चली। खैर रामप्रकाश ने नौकरी की तलाश में कुछएक डॉक्टर व दृष्टिहीन व्यक्तियों के द्वार खटखटाए, लेकिन आज तो व्यक्ति कमाने के लिए नहीं, बल्कि जेब ढीली करने के लिए ही डॉक्टर के द्वारे जाता है।
हल्की बीमारी में मेरा सीधा फंडा है कि पहले खुद ही दवा खाओ, जब रोग दो तीन दिन तक ठीक नहीं होता, तो डॉक्टर की शरण चले जाओ। वैसे मुझे पता है कि जिस तरह मोटर मैकेनिक स्कूटर खराब होने पर पहले प्लग देखता है। फिर पेट्रोल देखता है कि आगे जा रहा है या नहीं। यदि दोनो ही ठीक हों तो फिर इंजन खोलने की नौबत आती है। हम लोग भी कई बार प्लग साफ करने व बदलने का काम खुद ही कर लेते हैं। इसके बाद जब बड़ी खराबी हो तो मैकेनिक के पास ही जाते हैं। इसी प्रकार हम बीमारी ठीक न होने पर इंसान के मिस्त्री डॉक्टर के पास जाते हैं। डॉक्टर भी पहले दो-तीन दिन की सिंपल दवा देता है। इसके बाद भी जब रोग नहीं कटता, तो एंटीबायोटिक्स देता है। यदि पांच दिन के भीतर इस दवा का असर नहीं होता, तो खून टैस्ट व अन्य परीक्षण शुरू हो जाते हैं।
पिछले दिनों मेरे दस वर्षीय छोटे बेटे आर्यन को खांसी हो रही थी। दो-तीन दिन कफ सीरप देने के बाद भी जब खांसी कंट्रोल नही हुई तो मैने डॉक्टर को दिखाना ही उचित समझा। मेरे मोहल्ले में एक निजी चिकिस्क का क्लीनिक है। इस चिकित्सक के पास मैं अनमने मन से बच्चे को दिखाता हूं। कारण वह पर्चे में दवा कोड में लिखता है। साथ ही दवा भी रेपर फाड़कर लिफाफे में देता है। हालांकि डॉक्टर की फीस मामूली है। इसके बाद दूसरा चाइल्ड स्पेशलिस्ट डॉक्टर घर से करीब चार किलोमीटर दूर देहरादून के रायपुर क्षेत्र में है। वह मुझे कुछ ठीक लगता है। मैं उसके क्लीनिक मैं ही बेटे को ले गया। इन दिनों पूरी रायपुर रोड़ उधड़ी हुई है। बारिश से उसमें कीचड़ भी जगह-जगह भरा है। फिर भी किसी तरह साहस कर मैं क्लीनिक पहुंचा, तो वहां ताला लगा मिला। क्लीनिक के शटर में नोटिस चस्पा था कि चार दिन तक क्लीनिक बंद रहेगा। ऐसे में परेशान होकर मैने डालनवाला क्षेत्र में सरकारी अस्पताल (कोरोनेशन) जाने की सोची। कोरोनेशन अस्पताल में पहुंचकर सरकारी व्यवस्थाओं का सच उजागर हो गया। मरीजों की भीड़ लगी थी और चाइल्ड स्पेशलिस्ट के कमरे में ताला। पूछने पर पता चला कि डॉक्टर साहब वीआइपी ड्यूटी पर हैं। उन्हे आने में दो घंटे भी लग सकते हैं और चार घंटे भी।
खांसी बढ़ती जा रही थी और मेरी परेशानी भी। लौटकर बुद्धू घर को आए वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए मैं मोहल्ले के डॉक्टर के पास ही बेटे को ले गया। डॉक्टरों के चक्कर लगाते मेरा तीन घंटे से अधिक का समय बर्बाद हो चुका था।
मोहल्ले का डॉक्टर सिख है। उम्र बढ़ने के साथ ही उसके बाल भी सफेद हो चुके हैं। उसे मैने कभी हंसते हुए नहीं देखा। जब मैं पहुंचा तो वह फुर्सत में था और उस दिन मैने उसे पहली बार हंसते हुए भी देखा। हमसे पहले जब एक महिला मरीज उससे दवा लेकर चली गई, तो अपने तीन कर्मचारियों (एक कंपाउंडर व दो नर्स) को पहले आई मरीज के घर परिवार के बारे में बताने लगा। फिर उसे चूहा घूमता नजर आया। इस पर उसने अपने कर्मचारियों को चूहेदानी तलाशने को कहा। एक नर्स व कंपाउंडर ने चूहेदानी तलाशने में काफी देर लगने की बात कही, लेकिन हाल ही में रखी गई नई नर्स ने कहा कि उसने देखी है। वह चूहे दानी लेने दवाखाने की तरफ चली गई। इस बीच दोनों कर्मचारियों ने डॉक्टर के कान भरने शुरू कर दिए कि अभी इसे आए तीन दिन भी नहीं हुए और इसने क्लीनिक का चप्पा-चप्पा छान मारा। तभी चूहेदानी लेकर नर्स आ गई। उसे सभी संदेह की दृष्टि से देख रहे थे। आखिरकार डॉक्टर ने उससे पूछ लिया कि चूहेदानी कैसे मिली। उसने सीधा सा जवाब दिया कि कल उसके पैर में कहीं से गिरी थी, उसने उठाकर दूसरे स्थान पर रख दी थी।
बच्चा खांस रहा था, लेकिन इसकी चिंता न करते हुए डॉक्टर अब एक बंदर की कहानी सुनाने लगा। वह बता रहा था कि टेलीविजन में उसने एक बंदर को मोटरसाइकिल से पेट्रोल निकालकर पीते हुए देखा। मुझे देर होती जा रही थी और मन ही मन गुस्सा भी आ रहा था। मैने सोचा कि यह एक दिन की दवा देता है, कल फिर थकाएगा, ऐसे में मैने उसे तीन दिन की दवा देने को कहा। डॉक्टर ने दवा दी और फीस भी तीन गुनी ली। जो डॉक्टर मामूली फीस लेता है, उसकी फीस देखकर मैं भी चौंक गया। फिर यही ख्याल आया कि जब पेट्रोल, सब्जी, राशन-पानी आदि सभी की कीमत बढ़ गई है तो डॉक्टर भी फीस क्यों नहीं बढ़ाएगा।
भानु बंगवाल
हल्की बीमारी में मेरा सीधा फंडा है कि पहले खुद ही दवा खाओ, जब रोग दो तीन दिन तक ठीक नहीं होता, तो डॉक्टर की शरण चले जाओ। वैसे मुझे पता है कि जिस तरह मोटर मैकेनिक स्कूटर खराब होने पर पहले प्लग देखता है। फिर पेट्रोल देखता है कि आगे जा रहा है या नहीं। यदि दोनो ही ठीक हों तो फिर इंजन खोलने की नौबत आती है। हम लोग भी कई बार प्लग साफ करने व बदलने का काम खुद ही कर लेते हैं। इसके बाद जब बड़ी खराबी हो तो मैकेनिक के पास ही जाते हैं। इसी प्रकार हम बीमारी ठीक न होने पर इंसान के मिस्त्री डॉक्टर के पास जाते हैं। डॉक्टर भी पहले दो-तीन दिन की सिंपल दवा देता है। इसके बाद भी जब रोग नहीं कटता, तो एंटीबायोटिक्स देता है। यदि पांच दिन के भीतर इस दवा का असर नहीं होता, तो खून टैस्ट व अन्य परीक्षण शुरू हो जाते हैं।
पिछले दिनों मेरे दस वर्षीय छोटे बेटे आर्यन को खांसी हो रही थी। दो-तीन दिन कफ सीरप देने के बाद भी जब खांसी कंट्रोल नही हुई तो मैने डॉक्टर को दिखाना ही उचित समझा। मेरे मोहल्ले में एक निजी चिकिस्क का क्लीनिक है। इस चिकित्सक के पास मैं अनमने मन से बच्चे को दिखाता हूं। कारण वह पर्चे में दवा कोड में लिखता है। साथ ही दवा भी रेपर फाड़कर लिफाफे में देता है। हालांकि डॉक्टर की फीस मामूली है। इसके बाद दूसरा चाइल्ड स्पेशलिस्ट डॉक्टर घर से करीब चार किलोमीटर दूर देहरादून के रायपुर क्षेत्र में है। वह मुझे कुछ ठीक लगता है। मैं उसके क्लीनिक मैं ही बेटे को ले गया। इन दिनों पूरी रायपुर रोड़ उधड़ी हुई है। बारिश से उसमें कीचड़ भी जगह-जगह भरा है। फिर भी किसी तरह साहस कर मैं क्लीनिक पहुंचा, तो वहां ताला लगा मिला। क्लीनिक के शटर में नोटिस चस्पा था कि चार दिन तक क्लीनिक बंद रहेगा। ऐसे में परेशान होकर मैने डालनवाला क्षेत्र में सरकारी अस्पताल (कोरोनेशन) जाने की सोची। कोरोनेशन अस्पताल में पहुंचकर सरकारी व्यवस्थाओं का सच उजागर हो गया। मरीजों की भीड़ लगी थी और चाइल्ड स्पेशलिस्ट के कमरे में ताला। पूछने पर पता चला कि डॉक्टर साहब वीआइपी ड्यूटी पर हैं। उन्हे आने में दो घंटे भी लग सकते हैं और चार घंटे भी।
खांसी बढ़ती जा रही थी और मेरी परेशानी भी। लौटकर बुद्धू घर को आए वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए मैं मोहल्ले के डॉक्टर के पास ही बेटे को ले गया। डॉक्टरों के चक्कर लगाते मेरा तीन घंटे से अधिक का समय बर्बाद हो चुका था।
मोहल्ले का डॉक्टर सिख है। उम्र बढ़ने के साथ ही उसके बाल भी सफेद हो चुके हैं। उसे मैने कभी हंसते हुए नहीं देखा। जब मैं पहुंचा तो वह फुर्सत में था और उस दिन मैने उसे पहली बार हंसते हुए भी देखा। हमसे पहले जब एक महिला मरीज उससे दवा लेकर चली गई, तो अपने तीन कर्मचारियों (एक कंपाउंडर व दो नर्स) को पहले आई मरीज के घर परिवार के बारे में बताने लगा। फिर उसे चूहा घूमता नजर आया। इस पर उसने अपने कर्मचारियों को चूहेदानी तलाशने को कहा। एक नर्स व कंपाउंडर ने चूहेदानी तलाशने में काफी देर लगने की बात कही, लेकिन हाल ही में रखी गई नई नर्स ने कहा कि उसने देखी है। वह चूहे दानी लेने दवाखाने की तरफ चली गई। इस बीच दोनों कर्मचारियों ने डॉक्टर के कान भरने शुरू कर दिए कि अभी इसे आए तीन दिन भी नहीं हुए और इसने क्लीनिक का चप्पा-चप्पा छान मारा। तभी चूहेदानी लेकर नर्स आ गई। उसे सभी संदेह की दृष्टि से देख रहे थे। आखिरकार डॉक्टर ने उससे पूछ लिया कि चूहेदानी कैसे मिली। उसने सीधा सा जवाब दिया कि कल उसके पैर में कहीं से गिरी थी, उसने उठाकर दूसरे स्थान पर रख दी थी।
बच्चा खांस रहा था, लेकिन इसकी चिंता न करते हुए डॉक्टर अब एक बंदर की कहानी सुनाने लगा। वह बता रहा था कि टेलीविजन में उसने एक बंदर को मोटरसाइकिल से पेट्रोल निकालकर पीते हुए देखा। मुझे देर होती जा रही थी और मन ही मन गुस्सा भी आ रहा था। मैने सोचा कि यह एक दिन की दवा देता है, कल फिर थकाएगा, ऐसे में मैने उसे तीन दिन की दवा देने को कहा। डॉक्टर ने दवा दी और फीस भी तीन गुनी ली। जो डॉक्टर मामूली फीस लेता है, उसकी फीस देखकर मैं भी चौंक गया। फिर यही ख्याल आया कि जब पेट्रोल, सब्जी, राशन-पानी आदि सभी की कीमत बढ़ गई है तो डॉक्टर भी फीस क्यों नहीं बढ़ाएगा।
भानु बंगवाल
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