जिसे समझा दुश्मन, वही बना संजीवनी..
कई बार तो देखा गया कि शुरुआत में जिस चीज का विरोध होता है, बाद में वही काम की निकलती है। विरोध करने वाले अच्छे व बुरे का आंकलन करने की बजाय ही सीधे विरोध में उतर जाते हैं। 90 के दशक में जब कंप्यूटर की बात चली तो लाल झंडे वाले इसका विरोध करने लगे। कहा गया कि लोग बेरोजगार हो जाएंगे। बाद में जब कंप्यूटर आया तो अब इस पर निर्भरता भी बढ़ती जा रही है। इसकी बद्दोलत रोजगार के रास्ते खुले और लोगों की जीवनशैली बदली। अब केदारनाथ में आपदा की ही बात लो। जून माह में मुझे परिवार के साथ केदारनाथ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 10 जून को मैंने गौरीकुंड से केदारनाथ का 14 किमी का सफर तय किया। इसके अगले दिन 11 जून की सुबह जब वापस लौटने लगा तो रास्ते में घोड़ा व खच्चर नजर नहीं आए। कारण यह था कि घोड़ा, खच्चर, पालकी संचालकों ने हड़ताल कर दी थी। केदारनाथ यात्रा में खोड़ा व खच्चर का अहम योगदान रहता रहा। पहाड़ की खड़ी चढ़ाई में कई लोग चलने में सक्षम नहीं रहते और वे ही घोड़े व खच्चरों से यात्रा करते थे। हालांकि प्रशासन ने करीब चार हजार खच्चरों का रजिस्ट्रेशन कर रखा था। इसके बावजूद इस पैदल यात्रा रूट में आठ से दस हजार घोड़ा व खच्चरों का संचालन हो रहा था। ऐसे में लोगों का पैदल चलना भी दूभर हो रहा था। हर कदम संभलकर चलना पड़ता था, कहीं घोड़े की टक्कर न हो जाए। हड़ताल के कारण लौटते समय रास्ते में कुछ राहत जरूर मिली, लेकिन जो चलने में सक्षम नहीं थे उनकी दशा देखकर भी दुख हो रहा था।
खच्चर संचालकों से पूछा तो उन्होंने बताया कि हेलीकाप्टर के विरोध में वे हड़ताल कर रहे हैं। ये हड़ताल भी लाल झंडे वालों ने ही कराई थी। हड़ताल को लेकर एक दिन पहले केदारनाथ में कुछ नेताओं की बैठक हुई थी। उस बैठक में शामिल होने वाले खुद ही निजी कंपनियों के हेलीकाप्टर से फोकट में ही केदारनाथ पहुंचे थे। यानी मुफ्त में ही उड़ान भरी और अगले दिन हड़ताल भी कर दी। तर्क दिया गया कि हेलीकाप्टर से घोड़ा व खच्चर व्यवसाय पर असर पड़ रहा है। हालांकि घोड़ा व खच्चरों में बैठने वाले व हेलीकाप्टर में बैठने वाले अलग-अलग लोग ही रहते हैं। मेरी औकात घोड़े में बैठने की हो सकती है, लेकिन मैं हेलीकाप्टर में बैठकर अपनी आधी सेलरी नहीं उड़ा सकता था। साथ ही परिवार के साथ तो यह संभव ही नहीं था।
खैर ये हड़ताल भी तीन से चार दिन चली। तभी 16 व 17 जून को भारी बारिश से ऐसा सैलाब आया कि केदारनाथ तबाह हो गया। रामबाड़ा, गौरीकुंड, सौनप्रयाग समेत यात्रा के कई पड़ावों का अस्तित्व या तो पूरी तरह मिट गया या फिर नाम मात्र के मकान व होटल ही वहां बचे। सारे रास्ते समाप्त हो गए। हजारों लोग काल का ग्रास बन गए। जो बचे उनमें हजारों लोग केदारनाथ, बदरीनाथ व हेमकुंड साहिब के रास्तों में लोग फंस गए। ऐसे समय में फिर हेलीकाप्टर ही काम आए, जिसका कुछ दिन पहले विरोध किया जा रहा था। हेलीकाप्टर से हजारों लोगों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाया गया। सड़कों से कटे सैकड़ों गांवों में राशन की किल्लत हो गई। ऐसे गांवों में हेलीकाप्टर से राशन पहुंचाया गया और अभी भी पहुंचाया जा रहा है। पहाड़ के जिस व्यक्ति ने कभी गांव से शहर की तरफ कदम तक नहीं रखा। कभी जीवन में रेल तक नहीं देखी, वह भी जब आपदाग्रस्त क्षेत्र में फंसा तो उसे भी हेलीकाप्टर में बैठने का सौभाग्य मिला। बदरीनाथ के बामणी गांव व माणा में कपाट खुलने पर लोग पहुंचते हैं और खेती आदि करते हैं। कपाट बंद होने पर ये लोग मूल गांव पांडुकेश्वर व अन्य दूसरे गांवों में शिफ्ट हो जाते हैं। अब जब खेती तबाह हो गई तो ऐसे गांवों के लोगों ने बदरीनाथ से वापस अपने मूल गांव में लौटने में ही भलाई समझी। ग्रामीणों के साथ ही छात्र व छात्राओं को भी हेलीकाप्टर से पांडुकेश्वर तक पहुंचाया गया।
करीब दो साल पहले मैं टेलीविजन में एक घटना को देख रहा था। राजस्थान में कहीं बाढ़ का दृश्य था। एक नदी के बीच कार पहुंची कि पानी बढ़ गया। धीरे-धीरे कार डूबने लगी। उसमें बैठे लोग छत पर चढ़ गए। दोनों छोर से उन्हें बचाने के प्रयास नहीं हो सके। लोग तमाशबीन बने रहे। कुछ शायद कैमरे में उनकी मौत की लाइव फोटो खींचने में मशगूल थे। पानी इतना बढ़ा कि एक-एक कर सभी लहरों में समा गए। ठीक इसके उलट उत्तराखंड में आपदा में फंसे लोगों को सुरक्षित निकालने में सेना, एनडीआरएफ, आइटीबीपी, वायु सेना के साथ ही निजी कंपनियों के पायलट लगातार जूझते रहे। बीमार व्यक्तियों के साथ ही गर्भवती महिलाओं को भी हेलीकाप्टर से अभी भी मदद पहुंचाई जा रही है। व्यक्ति ही नहीं बल्कि जानवरों के लिए भी हेलीकाप्टर देवदूत बन गए।
16 व 17 जून की बारिश के दौरान जल प्रलय में हजारों लोगों के साथ ही हजारों खच्चर के मरने की भी सूचना है। कई खच्चरों के मालिक लापता होने से खच्चर भी लावारिश अवस्था में घूम रहे हैं। ऐसे ही सोनप्रयाग में एक खच्चर मंदाकनी नदी पर बने टापू में फंस गया। यह खच्चर कई दिनों तक भूखा रहा। जब भूख सहन नहीं हुई तो नदी में बहकर आए पेड़ जब टापू में फंसे तो इन पेड़ों की छाल खाकर खच्चर ने अपने पेट की आग को शांत किया। करीब 25 दिन तक टापू में फंसे इस खच्चर पर पशु प्रेमियों की नजर पड़ी। उसे निकालने के प्रयास भी विफल हो रहे थे। फिर 16 जुलाई को टापू में हेलीकाप्टर उतारा गया। इस खच्चर को बेहोश कर हेलीकाप्टर में लादा गया और टापू से सुरक्षित बाहर निकाला गया। जिन खच्चरों के लिए हेलीकाप्टर के खिलाफ एक माह पूर्व हड़ताल की गई थी, उन्हीं की जान भी हेलीकाप्टर से ही बची।यही नहीं, अब केदारघाटी के जंगलों में फंसे करीब 80 खच्चरों को हेलीकाप्टर से सुरक्षित स्थान तक निकालने की योजना पर भी काम शुरू हो गया है।
हालांकि मैं पहाड़ों में हेलीकाप्टर के पक्ष व विपक्ष में नहीं हूं। मेरा मानना है कि हेलीकाप्टर सेवा हो, लेकिन एक दायरे में ही यह संचालित हो। पूरे पहाड़ों को हेलीकाप्टर के शोर से न गुंजाया जाए। साथ ही अब हेलीकाप्टर पर ही हम निर्भर न रहें। जहां रास्ते क्षतिग्रस्त हैं, वहां सड़कों का पुर्नर्निमाण किया जाए। ताकि प्रभावित लोग चावल, आटा, लून व तेल के लिए प्रशासन पर निर्भर न रहें। आखिर कब तक हवाई सफर से हम राहत पहुंचा सकते हैं। जितना खर्च एक माह में हेलीकाप्टर उड़ाने में लगेगा, उससे कम राशि में तो पहाड़ों की लाइफ लाइन समझी जाने वाली सड़कें बन जाएंगी। सड़कें बनने से ही आधी समस्या खुद ही दूर हो जाएंगी। क्योंकि अभी भी उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग व चमोली जनपद के करीब दो सौ गांव ऐसे हैं, जहां सड़कें समाप्त होने से ग्रामीण घरों में कैद हैं।
भानु बंगवाल
कई बार तो देखा गया कि शुरुआत में जिस चीज का विरोध होता है, बाद में वही काम की निकलती है। विरोध करने वाले अच्छे व बुरे का आंकलन करने की बजाय ही सीधे विरोध में उतर जाते हैं। 90 के दशक में जब कंप्यूटर की बात चली तो लाल झंडे वाले इसका विरोध करने लगे। कहा गया कि लोग बेरोजगार हो जाएंगे। बाद में जब कंप्यूटर आया तो अब इस पर निर्भरता भी बढ़ती जा रही है। इसकी बद्दोलत रोजगार के रास्ते खुले और लोगों की जीवनशैली बदली। अब केदारनाथ में आपदा की ही बात लो। जून माह में मुझे परिवार के साथ केदारनाथ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 10 जून को मैंने गौरीकुंड से केदारनाथ का 14 किमी का सफर तय किया। इसके अगले दिन 11 जून की सुबह जब वापस लौटने लगा तो रास्ते में घोड़ा व खच्चर नजर नहीं आए। कारण यह था कि घोड़ा, खच्चर, पालकी संचालकों ने हड़ताल कर दी थी। केदारनाथ यात्रा में खोड़ा व खच्चर का अहम योगदान रहता रहा। पहाड़ की खड़ी चढ़ाई में कई लोग चलने में सक्षम नहीं रहते और वे ही घोड़े व खच्चरों से यात्रा करते थे। हालांकि प्रशासन ने करीब चार हजार खच्चरों का रजिस्ट्रेशन कर रखा था। इसके बावजूद इस पैदल यात्रा रूट में आठ से दस हजार घोड़ा व खच्चरों का संचालन हो रहा था। ऐसे में लोगों का पैदल चलना भी दूभर हो रहा था। हर कदम संभलकर चलना पड़ता था, कहीं घोड़े की टक्कर न हो जाए। हड़ताल के कारण लौटते समय रास्ते में कुछ राहत जरूर मिली, लेकिन जो चलने में सक्षम नहीं थे उनकी दशा देखकर भी दुख हो रहा था।
खच्चर संचालकों से पूछा तो उन्होंने बताया कि हेलीकाप्टर के विरोध में वे हड़ताल कर रहे हैं। ये हड़ताल भी लाल झंडे वालों ने ही कराई थी। हड़ताल को लेकर एक दिन पहले केदारनाथ में कुछ नेताओं की बैठक हुई थी। उस बैठक में शामिल होने वाले खुद ही निजी कंपनियों के हेलीकाप्टर से फोकट में ही केदारनाथ पहुंचे थे। यानी मुफ्त में ही उड़ान भरी और अगले दिन हड़ताल भी कर दी। तर्क दिया गया कि हेलीकाप्टर से घोड़ा व खच्चर व्यवसाय पर असर पड़ रहा है। हालांकि घोड़ा व खच्चरों में बैठने वाले व हेलीकाप्टर में बैठने वाले अलग-अलग लोग ही रहते हैं। मेरी औकात घोड़े में बैठने की हो सकती है, लेकिन मैं हेलीकाप्टर में बैठकर अपनी आधी सेलरी नहीं उड़ा सकता था। साथ ही परिवार के साथ तो यह संभव ही नहीं था।
खैर ये हड़ताल भी तीन से चार दिन चली। तभी 16 व 17 जून को भारी बारिश से ऐसा सैलाब आया कि केदारनाथ तबाह हो गया। रामबाड़ा, गौरीकुंड, सौनप्रयाग समेत यात्रा के कई पड़ावों का अस्तित्व या तो पूरी तरह मिट गया या फिर नाम मात्र के मकान व होटल ही वहां बचे। सारे रास्ते समाप्त हो गए। हजारों लोग काल का ग्रास बन गए। जो बचे उनमें हजारों लोग केदारनाथ, बदरीनाथ व हेमकुंड साहिब के रास्तों में लोग फंस गए। ऐसे समय में फिर हेलीकाप्टर ही काम आए, जिसका कुछ दिन पहले विरोध किया जा रहा था। हेलीकाप्टर से हजारों लोगों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाया गया। सड़कों से कटे सैकड़ों गांवों में राशन की किल्लत हो गई। ऐसे गांवों में हेलीकाप्टर से राशन पहुंचाया गया और अभी भी पहुंचाया जा रहा है। पहाड़ के जिस व्यक्ति ने कभी गांव से शहर की तरफ कदम तक नहीं रखा। कभी जीवन में रेल तक नहीं देखी, वह भी जब आपदाग्रस्त क्षेत्र में फंसा तो उसे भी हेलीकाप्टर में बैठने का सौभाग्य मिला। बदरीनाथ के बामणी गांव व माणा में कपाट खुलने पर लोग पहुंचते हैं और खेती आदि करते हैं। कपाट बंद होने पर ये लोग मूल गांव पांडुकेश्वर व अन्य दूसरे गांवों में शिफ्ट हो जाते हैं। अब जब खेती तबाह हो गई तो ऐसे गांवों के लोगों ने बदरीनाथ से वापस अपने मूल गांव में लौटने में ही भलाई समझी। ग्रामीणों के साथ ही छात्र व छात्राओं को भी हेलीकाप्टर से पांडुकेश्वर तक पहुंचाया गया।
करीब दो साल पहले मैं टेलीविजन में एक घटना को देख रहा था। राजस्थान में कहीं बाढ़ का दृश्य था। एक नदी के बीच कार पहुंची कि पानी बढ़ गया। धीरे-धीरे कार डूबने लगी। उसमें बैठे लोग छत पर चढ़ गए। दोनों छोर से उन्हें बचाने के प्रयास नहीं हो सके। लोग तमाशबीन बने रहे। कुछ शायद कैमरे में उनकी मौत की लाइव फोटो खींचने में मशगूल थे। पानी इतना बढ़ा कि एक-एक कर सभी लहरों में समा गए। ठीक इसके उलट उत्तराखंड में आपदा में फंसे लोगों को सुरक्षित निकालने में सेना, एनडीआरएफ, आइटीबीपी, वायु सेना के साथ ही निजी कंपनियों के पायलट लगातार जूझते रहे। बीमार व्यक्तियों के साथ ही गर्भवती महिलाओं को भी हेलीकाप्टर से अभी भी मदद पहुंचाई जा रही है। व्यक्ति ही नहीं बल्कि जानवरों के लिए भी हेलीकाप्टर देवदूत बन गए।
16 व 17 जून की बारिश के दौरान जल प्रलय में हजारों लोगों के साथ ही हजारों खच्चर के मरने की भी सूचना है। कई खच्चरों के मालिक लापता होने से खच्चर भी लावारिश अवस्था में घूम रहे हैं। ऐसे ही सोनप्रयाग में एक खच्चर मंदाकनी नदी पर बने टापू में फंस गया। यह खच्चर कई दिनों तक भूखा रहा। जब भूख सहन नहीं हुई तो नदी में बहकर आए पेड़ जब टापू में फंसे तो इन पेड़ों की छाल खाकर खच्चर ने अपने पेट की आग को शांत किया। करीब 25 दिन तक टापू में फंसे इस खच्चर पर पशु प्रेमियों की नजर पड़ी। उसे निकालने के प्रयास भी विफल हो रहे थे। फिर 16 जुलाई को टापू में हेलीकाप्टर उतारा गया। इस खच्चर को बेहोश कर हेलीकाप्टर में लादा गया और टापू से सुरक्षित बाहर निकाला गया। जिन खच्चरों के लिए हेलीकाप्टर के खिलाफ एक माह पूर्व हड़ताल की गई थी, उन्हीं की जान भी हेलीकाप्टर से ही बची।यही नहीं, अब केदारघाटी के जंगलों में फंसे करीब 80 खच्चरों को हेलीकाप्टर से सुरक्षित स्थान तक निकालने की योजना पर भी काम शुरू हो गया है।
हालांकि मैं पहाड़ों में हेलीकाप्टर के पक्ष व विपक्ष में नहीं हूं। मेरा मानना है कि हेलीकाप्टर सेवा हो, लेकिन एक दायरे में ही यह संचालित हो। पूरे पहाड़ों को हेलीकाप्टर के शोर से न गुंजाया जाए। साथ ही अब हेलीकाप्टर पर ही हम निर्भर न रहें। जहां रास्ते क्षतिग्रस्त हैं, वहां सड़कों का पुर्नर्निमाण किया जाए। ताकि प्रभावित लोग चावल, आटा, लून व तेल के लिए प्रशासन पर निर्भर न रहें। आखिर कब तक हवाई सफर से हम राहत पहुंचा सकते हैं। जितना खर्च एक माह में हेलीकाप्टर उड़ाने में लगेगा, उससे कम राशि में तो पहाड़ों की लाइफ लाइन समझी जाने वाली सड़कें बन जाएंगी। सड़कें बनने से ही आधी समस्या खुद ही दूर हो जाएंगी। क्योंकि अभी भी उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग व चमोली जनपद के करीब दो सौ गांव ऐसे हैं, जहां सड़कें समाप्त होने से ग्रामीण घरों में कैद हैं।
भानु बंगवाल
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