दूनघाटी का मौसम भी कमाल का है। कभी बारिश होने लगती है, तो कभी आसमान साफ नजर आने लगता है। हल्का मौसम खराब हुआ, पहाड़ों में बर्फ पडी़ और ठंड बढ़ने लगती है देहरादून में। सर्दी का असर व्यक्ति को तो पड़ता ही है, साथ ही इस मशीनी युग में मशीनों पर भी दिखाई दे रहा है। बात कुछ अटपटी है, लेकिन मेरा कंप्यूटर तो यही कह रहा है। पिछले शनिवार को देहरादून में ओले क्या गिरे, इस कंप्यूटर ने काम करना बंद कर दिया। आदमी हो तो ठंड दूर करने का इलाज किया जाए, लेकिन कंप्यूटर का क्या इलाज करेंगे। कंप्यूटर से नेट गायब। बीएसएनएल य़ानी भाई साहब नहीं लगे,,में शिकायत की तो वहां से तर्क दिया गया कि ओले गिरने से ज्यादातर लोगों के मॉडम फूंक गए। भाई मेरा कंप्यूटर तो बंद था, फिर इसे सर्दी कैसे लग सकती है। लगातार जांच होती रही। फिर जाकर पता चला कि एक्सचेंज का ही फाल्ट है। जो चौथे दिन मंगलवार को ही ठीक हो पाया।
कंप्यूटर से ज्यादा बुरा हाल मेरा था। ठीक-ठाक कपड़े भी पहन रहा था। बारिश में बरसाती का भी इस्तेमाल कर रहा था। जब औले गिरे में ऑफिस में था, जहां एसी की गरमाहट थी। ठंड लगने का सवाल ही नहीं था। शनिवार की रात घर पहुंचा तो देखा आंगन में बच्चों ने ओले एकत्र कर बर्फ का स्नोमैन बनाया हुआ था। बच्चों ने बताया कि पूरा आंगन ओलों से भर गया था। तब उन्होंने यह स्नोमैन बनाया। मुझे बच्चों के इस खेल पर गुस्सा आने लगा। खासकर छोटे बेटे पर, जो कुछ दिन पहले खांसी, जुकाम व बुखार से पीड़ित था। रात को खौं-खौं कर सोने नहीं दे रहा था। उसे मैने समझाया कि बार-बार दवा लाने से घर का बजट बिगड़ रहा है। उसे ऐसे खेल की क्या जरूरत थी। खैर पत्नी ने समझाया कि अब बच्चों ने खेल कर दिया तो उसके बाद बिगड़ने की क्या आवश्यकता है। मैने कहा कि आगे के लिए वे नसीहत लेंगे। कुछ ही दिनों से उनकी परीक्षा शुरू हो जाएंगी। ऐसे में बीमार होने से बचना चाहिए।
बच्चे फिर से बीमार न हो जाएं यह चिंता मुझे सता रही थी। तभी मैं भी ठंड से कांपने लगा। रात्रि का भोजन लेने के बाद भी कंपकपी दूर नहीं हुई तो पत्नी ने कहा कि कड़क चाय बना दूं। सब ठीक हो जाएगा। क्या सर्दी का इलाज चाय है। मैं यही सोच रहा था। शराब पीने वाला दो पैग से सर्दी दूर भगाता है। उसका तर्क होता है दो पैग मारो सभी बीमारी दूर। पीने वाला पैग भी मारता है, लेकिन अगले दिन तबीयत और ज्यादा खराब नजर आती है। अन्य लोग चाय से सर्दी दूर करने का उपाय खोजते हैं। वाकई ये चाय भी क्या चीज है। इसका देहरादून व गढ़वाल के लोगों से बहुत पुराना नाता नहीं है। आजादी से कुछ साल पहले ही शायद यहां के लोगों ने चाय का स्वाद चखा था। अब इसके बगैर न तो किसी की सुबह होती है और न ही रात।
वैसे करीब 1830 में अंग्रेजों ने देहरादून में चाय की खेती शुरू की थी। चाय की खेती के लिए ईस्ट होप टाउन, आरकेडिया टी स्टेट, व हरबंशवाला के साथ ही विकासनगर में चाय के बगीचे लगाए गए। दूनघाटी में जिस चाय का उत्पादन होता था वह ग्रीन-टी के नाम से मशहूर थी। निकोटीन रहित इस चाय की मांग भारत के अमृतसर जिले में अधिक थी। नीदरलैंड,जर्मनी, इंग्लैंड,रसिया के साथ ही यूरोप के कई देशों में इसकी मांग थी। इसका उपयोग दवा बनाने में भी किया जाता था। इसकी मांग के अनुरूप निर्यात नहीं हो पाता था। 1997 में अमेरिका ने देहरादून के बगीचों से उत्पन्न चाय की गुणवत्ता को देखकर इसे आरगेनिक टी घोषित किया था। अलग प्रदेश उत्तराखंड बना तो यहां खेती की जमीन की जगह कंकरीट के जंगल नजर आने लगे। साथ ही चाय के बगान उजाड़ होने लगे। चाय बगान सिकुड़ रहे हैं और उनकी जगह भवनों ने ले ली।
भले ही देहरादून में चाय की खेती पहले से हो रही थी, लेकिन आमजन चाय का टेस्ट तक नहीं जानता था। आमजन को भी चाय की चुस्की का चस्का अंग्रेजों ने ही लगाया। मेरे पिताजी बताते थे कि 1940 के दौरान अंग्रेजों ने लोगों में चाय का चस्का डालने की शुरूआत की। इसके लिए पल्टन बाजार में चाय का स्टाल लगाया गया। इस स्टाल में चाय बनाकर फ्री में रहागीरों को पिलाई जाने लगी। कुछ दिन बाद मेरा फ्री की बजाय चाय की कीमत वसूली जाने लगी। साथ ही चाय पीने वाले को एक पुड़िया में चाय पत्ती भी दी जाती। ताकि वह घर में चाय बनाकर पी सके। चाय का जादू ऐसा चला कि लोग इसके आदि हो गए। दूर-दराज के पर्वतीय क्षेत्र में जहां मोटर तक नहीं पहुंच सकी, वहां घरों में चाय पत्ती पहुंच गई और केतली में हर सुबह चाय उबलने लगी। पहाड़ों में तो चाय ने कलयुगी अमृत के रूप में अपनी जगह बना ली।
करीब बाइस साल पहले वर्ष 1992 में चकराता रोड निवासी एक बुजुर्ग ने मुझे चाय की कहानी कुछ इस तरह सुनाई। उन्होंने बताया कि जब वह छोटे थे तो उस समय चाय सिर्फ पैसे वालों के घर में ही बनती थी। चाय को मजे के लिए नहीं, बल्कि दवा के रूप में पिया जाता था। उन्होंने बताया कि जब वह आठ साल के थे, तो उनके पड़ोस में कभी-कभार चाय बना करती थी। उसकी खुश्बू से ही लोग अंदाजा लगाते थे कि पड़ोस की आंटी चाय बना रही है। उन्होंने बताया कि सर्दी के दिन थे, मैने आंटी से कहा कि चाय पिला दो। इस पर आंटी उन्हें कमरे में ले गई। बिस्तर पर बैठाकर उनके पूरे शरीर में कंबल लपेट दिया। इस दौरान स्टोव में चाय चढ़ा दी गई। फिर गर्मागरम चाय परोसी गई। जो कंबल में लपेटे ही उन्हें पिलाई गई। चाय पीते ही सारी सर्दी भाग गई।
तब और अब। इन साठ-सत्तर साल के अंतराल में चाय के माइने ही बदल गए। चाय में वह गर्मी नहीं रही। मैने भी सर्दी लगने पर जो चाय पी। उसने भी असर नहीं दिखाया। शायद मिलावटखोरी ने चाय की ताकत भी खत्म कर दी। तभी तो पिछले चार दिन से सुबह-दोपहर व शाम को चाय के साथ ही सर्दी-जुकाम,बखार की दवा खा रहा हूं, लेकिन तबीयत ठीक होने का नाम तक नहीं ले रही है। ओले पड़े और कुछ ही घंटों में पिघल गए, लेकिन शरीर में सर्दी ने जो प्रवेश किया, वह तो वहीं जम कर बैठ गई। इसका चाय इलाज चाय की चुस्की में भी नजर नहीं आ रहा है। फिर भी चाय का महत्व कम नहीं हुआ। कई बार चाय के बहाने बड़े-बड़े समझोते तक हो जाते हैं। चाय की महत्ता को पहचानते हुए नरेंद्र मोदी के माध्यम से भाजपा ने तो चाय चौपाल का अभियान ही छेड़ दिया है। चाय सियासी दावपेंच का आधार बन रही है। अब देखना है कि इस मामले में चाय अपनी कितनी गर्मी दिखाती है।
भानु बंगवाल
कंप्यूटर से ज्यादा बुरा हाल मेरा था। ठीक-ठाक कपड़े भी पहन रहा था। बारिश में बरसाती का भी इस्तेमाल कर रहा था। जब औले गिरे में ऑफिस में था, जहां एसी की गरमाहट थी। ठंड लगने का सवाल ही नहीं था। शनिवार की रात घर पहुंचा तो देखा आंगन में बच्चों ने ओले एकत्र कर बर्फ का स्नोमैन बनाया हुआ था। बच्चों ने बताया कि पूरा आंगन ओलों से भर गया था। तब उन्होंने यह स्नोमैन बनाया। मुझे बच्चों के इस खेल पर गुस्सा आने लगा। खासकर छोटे बेटे पर, जो कुछ दिन पहले खांसी, जुकाम व बुखार से पीड़ित था। रात को खौं-खौं कर सोने नहीं दे रहा था। उसे मैने समझाया कि बार-बार दवा लाने से घर का बजट बिगड़ रहा है। उसे ऐसे खेल की क्या जरूरत थी। खैर पत्नी ने समझाया कि अब बच्चों ने खेल कर दिया तो उसके बाद बिगड़ने की क्या आवश्यकता है। मैने कहा कि आगे के लिए वे नसीहत लेंगे। कुछ ही दिनों से उनकी परीक्षा शुरू हो जाएंगी। ऐसे में बीमार होने से बचना चाहिए।
बच्चे फिर से बीमार न हो जाएं यह चिंता मुझे सता रही थी। तभी मैं भी ठंड से कांपने लगा। रात्रि का भोजन लेने के बाद भी कंपकपी दूर नहीं हुई तो पत्नी ने कहा कि कड़क चाय बना दूं। सब ठीक हो जाएगा। क्या सर्दी का इलाज चाय है। मैं यही सोच रहा था। शराब पीने वाला दो पैग से सर्दी दूर भगाता है। उसका तर्क होता है दो पैग मारो सभी बीमारी दूर। पीने वाला पैग भी मारता है, लेकिन अगले दिन तबीयत और ज्यादा खराब नजर आती है। अन्य लोग चाय से सर्दी दूर करने का उपाय खोजते हैं। वाकई ये चाय भी क्या चीज है। इसका देहरादून व गढ़वाल के लोगों से बहुत पुराना नाता नहीं है। आजादी से कुछ साल पहले ही शायद यहां के लोगों ने चाय का स्वाद चखा था। अब इसके बगैर न तो किसी की सुबह होती है और न ही रात।
वैसे करीब 1830 में अंग्रेजों ने देहरादून में चाय की खेती शुरू की थी। चाय की खेती के लिए ईस्ट होप टाउन, आरकेडिया टी स्टेट, व हरबंशवाला के साथ ही विकासनगर में चाय के बगीचे लगाए गए। दूनघाटी में जिस चाय का उत्पादन होता था वह ग्रीन-टी के नाम से मशहूर थी। निकोटीन रहित इस चाय की मांग भारत के अमृतसर जिले में अधिक थी। नीदरलैंड,जर्मनी, इंग्लैंड,रसिया के साथ ही यूरोप के कई देशों में इसकी मांग थी। इसका उपयोग दवा बनाने में भी किया जाता था। इसकी मांग के अनुरूप निर्यात नहीं हो पाता था। 1997 में अमेरिका ने देहरादून के बगीचों से उत्पन्न चाय की गुणवत्ता को देखकर इसे आरगेनिक टी घोषित किया था। अलग प्रदेश उत्तराखंड बना तो यहां खेती की जमीन की जगह कंकरीट के जंगल नजर आने लगे। साथ ही चाय के बगान उजाड़ होने लगे। चाय बगान सिकुड़ रहे हैं और उनकी जगह भवनों ने ले ली।
भले ही देहरादून में चाय की खेती पहले से हो रही थी, लेकिन आमजन चाय का टेस्ट तक नहीं जानता था। आमजन को भी चाय की चुस्की का चस्का अंग्रेजों ने ही लगाया। मेरे पिताजी बताते थे कि 1940 के दौरान अंग्रेजों ने लोगों में चाय का चस्का डालने की शुरूआत की। इसके लिए पल्टन बाजार में चाय का स्टाल लगाया गया। इस स्टाल में चाय बनाकर फ्री में रहागीरों को पिलाई जाने लगी। कुछ दिन बाद मेरा फ्री की बजाय चाय की कीमत वसूली जाने लगी। साथ ही चाय पीने वाले को एक पुड़िया में चाय पत्ती भी दी जाती। ताकि वह घर में चाय बनाकर पी सके। चाय का जादू ऐसा चला कि लोग इसके आदि हो गए। दूर-दराज के पर्वतीय क्षेत्र में जहां मोटर तक नहीं पहुंच सकी, वहां घरों में चाय पत्ती पहुंच गई और केतली में हर सुबह चाय उबलने लगी। पहाड़ों में तो चाय ने कलयुगी अमृत के रूप में अपनी जगह बना ली।
करीब बाइस साल पहले वर्ष 1992 में चकराता रोड निवासी एक बुजुर्ग ने मुझे चाय की कहानी कुछ इस तरह सुनाई। उन्होंने बताया कि जब वह छोटे थे तो उस समय चाय सिर्फ पैसे वालों के घर में ही बनती थी। चाय को मजे के लिए नहीं, बल्कि दवा के रूप में पिया जाता था। उन्होंने बताया कि जब वह आठ साल के थे, तो उनके पड़ोस में कभी-कभार चाय बना करती थी। उसकी खुश्बू से ही लोग अंदाजा लगाते थे कि पड़ोस की आंटी चाय बना रही है। उन्होंने बताया कि सर्दी के दिन थे, मैने आंटी से कहा कि चाय पिला दो। इस पर आंटी उन्हें कमरे में ले गई। बिस्तर पर बैठाकर उनके पूरे शरीर में कंबल लपेट दिया। इस दौरान स्टोव में चाय चढ़ा दी गई। फिर गर्मागरम चाय परोसी गई। जो कंबल में लपेटे ही उन्हें पिलाई गई। चाय पीते ही सारी सर्दी भाग गई।
तब और अब। इन साठ-सत्तर साल के अंतराल में चाय के माइने ही बदल गए। चाय में वह गर्मी नहीं रही। मैने भी सर्दी लगने पर जो चाय पी। उसने भी असर नहीं दिखाया। शायद मिलावटखोरी ने चाय की ताकत भी खत्म कर दी। तभी तो पिछले चार दिन से सुबह-दोपहर व शाम को चाय के साथ ही सर्दी-जुकाम,बखार की दवा खा रहा हूं, लेकिन तबीयत ठीक होने का नाम तक नहीं ले रही है। ओले पड़े और कुछ ही घंटों में पिघल गए, लेकिन शरीर में सर्दी ने जो प्रवेश किया, वह तो वहीं जम कर बैठ गई। इसका चाय इलाज चाय की चुस्की में भी नजर नहीं आ रहा है। फिर भी चाय का महत्व कम नहीं हुआ। कई बार चाय के बहाने बड़े-बड़े समझोते तक हो जाते हैं। चाय की महत्ता को पहचानते हुए नरेंद्र मोदी के माध्यम से भाजपा ने तो चाय चौपाल का अभियान ही छेड़ दिया है। चाय सियासी दावपेंच का आधार बन रही है। अब देखना है कि इस मामले में चाय अपनी कितनी गर्मी दिखाती है।
भानु बंगवाल
चाय के सफर पर सुन्दर प्रस्तुति बंगवाल जी ..
ReplyDeleteदर असल चाय में मिलावट हुई हो या न हुई हो . लेकिन उसका सत्व हमारे शरीर में इस तरह रच बस गया है कि अब शीर में चाय का असर सामान्यत: अनुभव नही होता .. बिलकुल ऐसे ही जैसे अब मच्छरों पर डी डी टी का सर नही होता ..