Sunday, 16 March 2014

भ्रष्टाचारी में भी ईमानदारी...

वैसे देखा जाए तो भ्रष्टाचार पर चर्चा कोई नया विषय नहीं है। आज से करीब चालीस साल पहले भी जब में छोटा था, तब भी लोगों के मुंह से यही सुनता था कि समाज में भ्रष्टाचार किस कदर बढ़ रहा है। यही नहीं बुजुर्ग अंग्रेजों के जमाने के किस्से सुनाते थे। साथ ही वे आजादी के आंदोलन की गाथा को भी बड़े चाव से सुनाते। साथ ही यह भी कहते कि अंग्रेजों के समय में भ्रष्टाचार कम था। अब ज्यादा देखने को मिल रहा है। इससे यह तो नहीं माना जा सकता कि अंग्रेजों के समय भ्रष्टाचार कम रहा होगा। हां इतना जरूर है कि पहले भ्रष्टाचार के मामले खुलते नहीं थे, अब आम हो गए हैं। यही नहीं चाहे महाभारत काल रहा हो या फिर राम के दौर का समय। तब भी समाज में  छल-कपट व्याप्त था। जो छल-कपट का सहारा लेते, उन्हें ही राक्षस की संज्ञा दी जाती। उन्हीं के कर्म ही तो भ्रष्टाचार का स्वरूप थे।
एक दिन सुबह सूचना मिली कि बहन के ससुराल पक्ष में एक महिला की मौत हो गई। मरने वाली महिला करीब 80 साल की थी, जो सरकारी स्कूल में शिक्षिका रही। जीवन भर वह कभी बीमार तक नहीं हुई। आखरी वक्त पर महिला ने जब बिस्तर पकड़ा तो दोबारा उठ नहीं सकी। पति भी सरकारी स्कूल से रिटायर्ड प्रींसिपल थे। तीन बेटे भी अच्छी खासी नौकरी पर हैं। सभी का अपना भरापूरा परिवार है। साधन संपन्न इतने हैं कि बेटों ने मां के इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी। निजी अस्पताल के आइसीयू में बुजुर्ग महिला ने ढाई माह काटे। फिर चल बसी।
भले ही किसी के सुख में शामिल न हों, लेकिन दुख की घड़ी में जरूर जाना चाहिए। ऐसी घड़ी में शोकाकुल परिवार को सांत्वना की जरूरत होती है। ऐसे मौकों पर मेरी समझ में नहीं आता कि वहां जाकर क्या कहूंगा। मैं तो चुपचाप एक कोने में बैठ गया। पहले से पता था कि महिला बीमार थी, यह भी पता था कि कब मरी। ऐसे में मैं क्या पूछता कि कैसे हुआ, कब हुआ। जिस दिन मैं शोकाकुल परिवार के घर पहुंचा, उससे एक दिन पहले महिला का दाह संस्कार हो चुका था। घर में बातचीत का क्रम भी कुछ अजीब सा लगा। कोई राजनीति की बात छेड़ता तो कोई समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार की दुहाई देता। बातचीत में ज्यादातर लोग नेताओं को ही कोसते। साथ ही सरकारी अफसरों के भ्रष्टाचार के किस्से भी सुनाते। मृतका के पति बताते हैं कि पूरी नौकरी के दौरान उन्होंने न तो रिश्वत ली और न ही दी। रिटायर्ड होने के बाद पेंशन व अन्य भत्तों की फाइल को आगे सरकाने के लिए वह एक लिपिक के पास पहुंचे तो उसे दो सौ रुपये देने पड़े। उसी दौरान लिपिक के पास एक सिफारिशी व्यक्ति भी पहुंचा। उससे पैसे नहीं मिले तो लिपिक ने यह कहकर टाल दिया कि देयों को भरने के लिए फार्म खत्म हो गए हैं। ट्रैजरी से फार्म आने में तीन दिन लग जाएंगे।
बातचीत का क्रम यहां भी खत्म नहीं हुआ और यह महाशय आगे बताने लगे कि बड़े बेटे को अपना ट्रांसफर लखनूऊ से ऋषिकेश कराना था। इलाहाबाद में फाइल फंसी हुई थी। साथ ही करीब ऐसे दस और लोगों की फाइल थी, जो ऋषिकेश जाना चाहते थे। सभी के पास कोई न कोई सिफारिश थी। उनके बेटे से एक बाबू ने पूछा कि तुम्हारे पर किसकी सिफारिश है। इस पर उसने जवाब दिया कि मेरे पास कोई सिफारिश नहीं है। साथ ही उसने बाबू की जेब में चार सौ रुपये रख दिए। इस पर बाबू ने कहा कि ये रुपये वापस रखो। जब ट्रांसफर हो जाएगा, तब देना। साथ ही उसने बताया कि हर फाइल के साथ मंत्रियों करी सिफारिश आई हुई है, पर काम तुम्हारा ही करुंगा। हुआ भी यही, बेटे का काम हो गया। तबादला आदेश मिलने पर ही उसने लिपिक को चार सौ रुपये दिए। महाशय ठंडी सांस लेकर बोले भ्रष्टाचार तब भी था और अब भी है, लेकिन तब ईमानदारी थी। तब काम करने के बाद ही पैसा लेते थे। अब तो पैसा भी लेते हैं और काम की कोई गारंटी नहीं।
भानु बंगवाल        

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