Saturday, 22 March 2014

मौके की नजाकत भांपकर बदल रहे वेश...

लो आ ही गया चुनाव का मौसम। छल, कपट, फरेब से नाता रखने वाले, दूसरों को धोखा देने वालों से हिसाब चुकाने का मौका। इस मौके से चूकना नहीं है। क्योंकि आपकी चौखट में अब भिखारियों के आने का सिलसिला शुरू हो जाएगा। इनमें से कौन ज्यादा ईमानदार भिखारी है, उसका चयन ही तो आपने करना है। उसकी अच्छी बुरी आदतों का नापतौल आपको ही करना है। फैसला आपको ही देना है। वैसे तो आप हर बार फैसला देते हैं, लेकिन यह खुद से भी सवाल करना है कि जो हम करने जा रहे हैं, क्या यह वास्तव में ठीक है। हम जिसे चुन रहे हैं, क्या वो किसी की भलाई कर सकता है। वैसे तो इन भिखारियों से भलाई की उम्मीद लगाना बेमानी होगा। फिर भी जब हम भ्रष्टाचारियों में से एक को चुनते हैं तो यह देखना जरूरी है कि आखिर कौन कम भ्रष्टाचारी है।
नेताओं के लिए मैं ऐसे अपमानजनक शब्द यूं ही नहीं बोल रहा हूं। मेरे शब्दों से यदि किसी को ठेस पहुंचे तो मैं उनसे क्षमाप्रार्थी हूं। वर्तमान में देश की राजनीति का जो हश्र इन नेताओं ने कर दिया, उसमें इस तरह के शब्द भी कम ही पड़ते हैं। क्योंकि मुझे भिखारी व नेताओं में ज्यादा फर्क नजर नहीं आता। यदि दोनों को एक तराजू के दो पलड़े में डाला जाए तो भिखारी का पलड़ा ही शायद भारी निकले। क्योंकि भिखारी के लिए कोई छोटा या बड़ा नहीं है। मौके की नजाकत भांपते हुए वह अपना वेश बदलता है। पेट की आग बुझाने के लिए वह दूसरों को दुआएं देता है। वह हर जाति, समुदाय व धर्म के त्योहार में शरीक होता है। ईद के मौके पर ईदगाहस्थल के बाहर भिखारी मुस्लिम टोपी पहने नजर आता है। चादर फैलाकर वह भीख मांगता है और देने वालों को दुआएं देता है। क्रिसमस के मौके पर वह गिरिजाघरों के बाहर नजर आता है। वही व्यक्ति शिवरात्री जन्माष्टमी आदि हिंदुओं के त्योहार में मंदिरों के बाहर भी दिख जाता है। यहां सिर्फ उसके पहनावे में ही फर्क होता है। भीख मांगने का तरीका वही होता है। बस मस्जिद के बाहर अल्लाह भला करे, मंदिर के बाहर भगवान भला करे, गिरीजाघर के बाहर यीशु भला करे, जैसे शब्द उसकी जुबां से निकलते हैं। इन सब के बावजूद वह भीख में जो भी दक्षिणा लेता है, उसके बदले दुआ जरूर देता है।
अब नेताओं के चरित्र पर भी नजर डालिए। वह भी हर धर्म, संप्रदाय, जाति की बात करता है। कई बार तो वह धार्मिक आयोजनों में जाता है, तो पहनावा भी वहीं के हिसाब से रखता है। मौका मिलने पर वह भी वोट मांगता है। पर नेता तो लेता ही लेता है, बदले में वह कुछ नहीं देता। उलटा वोट मिलने के बाद यदि वह जीत जाए तो पब्लिक का खून चूसने के रास्ते भी तलाश कर लेता है। सच तो यह है कि मौका मिलने पर वह आदमी के लहू में रोटी डूबो कर खाने से भी संकोच नहीं करता।
भिखारी वक्त की नजाकत को भांपकर वेश बदलता है, भीख मांगने का स्थान बदलता है। नेता भी तो यही कर रहा है। पूरे जीवन भर एक पार्टी में रहकर दूसरे दल को गरियाता रहता है। चुनाव से पहले ऐन वक्त पर मौका देखकर पार्टी बदलने में भी जरा गुरेज नहीं करता। भले ही पहले तक उस दल को वह हर दिन गालियां देता रहा हो। चुनाव के मौसम में आजकल ऐसे लोगों की बाढ़ सी आई हुई है। बस वे तो आपस में लड़ना व दूसरों को लड़ाना जानते हैं। पूरब को पश्चिम से, उत्तर को दक्षिण से, ठाकुर को ब्राह्मण से, जाति, धर्म, सांप्रदायिकता के नाम पर एक दूसरे को लड़ाने में वह माहिर है। एक ठाकुर नेता ने एक दल छोड़ा। कारण यह रहा कि जातिभाई आगे बढ़ने नहीं दे रहा है। पुराने दल में नेताजी दमदार नेताओं की श्रेणी में आते थे। अब दूसरे दल में वह सेवा करने को पहुंच गए। सेवाभाव उन्हें अपने पुराने दल में नजर नहीं आया। जनता के हक की योजनाओं का लाभ खुद ही चट कर गए। अब कहते हैं कि दूसरे दल में सेवाभाव करेंगे और जूठी पत्तलों को उठाएंगे। खुद तो दल बदला, लेकिन पत्नी को पुराने दल में ही छोड़ दिया। यह भी ठीक है। दो दलों में घुसपैंठ रहेगी तो दोनों हाथों में लड्डू रहेंगे। वक्त की नुजाकत को देखते आपने खूब वेश बदला। पर जनता तो सब देख रही है, वह तो भोली है, नासमझ है। ऐसी जनता जाए भाड़ में।
भानु बंगवाल

1 comment:

  1. umeed hai is bar publik ese netaon ko jarur sabak sikhayege.

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