Monday, 24 September 2012

बहस जारी है........

अमूमन हर शहर में कुछ काफी हाउस ऐसे होते हैं, जहां लोग समय बीताने के  लिए पहुंचते हैं। इनमें कई ऐसे लोग पहंचते हैं, जो या तो नौकरी, या फिर नेतागिरी से रिटायर्ड हो जाते हैं। ऐसे स्थान पर कवि, साहित्यकार से लेकर वे लोग भी पहुंचते हैं, जो किसी न किसी दल के नेता तो नहीं होते, लेकिन एक विचारधारा रखने वाले सच्चे कार्यकर्ता होते हैं। ऐसा ही एक काफी हाऊस देहरादून के चकराता रोड पर टिपटाप के नाम से था। समय बीतने के साथ उसका अस्तित्व सामाप्त हो गया। दूसरा काफी हाउस शहर के मुख्य चौराहे दर्शनलाल चौक पर है। जो वर्षों से अभी भी चल रहा है। वर्ष 91 से पहले तक मैं भी नियमित रूप से टिपटाप में जाता था। समय की व्यस्तता के चलते मेरा वहां जाना बंद हो गया। एक साल पहले टिपटाप भी सड़क चौड़ीकण की योजना की जद में आया और लगभग बंद हो गया। मैं पुरानी यादों को ताजा करने के लिए पुराने लोगों से मिलना चाहता था। ऐसे में मैने एक मित्र को फोन मिलाया और पूछा कि आजकल नेता, साहित्यकार आदि कहां बैठ रहे हैं। इस पर मित्र ने बताया कि ऐसे लोग डिलाइट में नियमित रूप से पहुंचते हैं। साथ ही मित्र ने सलाह दी कि डिसप्रिन की गोली जरूर खा कर जाना। नहीं तो शोरगुल व बहस को सुनकर सिर दर्द होने लगेगा। मैने कहा कि मैं तो अपने दिमाग की कसरत के लिए जा रहा हूं। नए आइडिए ऐसे ही स्थानों में हर तरह के लोगों के बीच बैठकर मिलते हैं। मुझे कोई गोली खाने की जरूरत नहीं है।
छुट्टी के दिन शाम के करीब चार बजे मैं डिलाइट में पहुंच गया। इस छोटे से रेस्टोरेंट में टेबिलों के दोनों तरफ बैठने के लिए बैंच रखी हैं। एक वक्त में पच्चीस से तीस लोग वहां आसानी से बैठ सकते हैं। वहां पहुंचते ही मुझे एक कम्युनिष्ट पार्टी के प्रदेश सचिव मिले। मुझे देखकर ही वह आत्मीयता से गले मिले। वही पतली काठी,ठोढी पर लेनिन मार्का दाढ़ी कुछ बड़ी हुई और पूरे गाल पर हल्की दाढ़ी। ये थे भंडारी जी, जो कभी श्रम विभाग में लेबर इंस्पैक्टर थे। बाद में नौकरी छोड़कर मजदूरों के नेता बन गए और उनके हक की आवाज उठाने लगे। उसकी हालत भी मजदूरों की तरह हो गई। भंडारी जी के साथ मैं एक बैंच पर बैठ गया और उत्तराखंड में चल रहे उपचुनाव को लेकर चर्चा करने लगा। मौके पर हर टेबल के आगे की बैंच लगभग भरी हुई थी। कही किसी की सरकार बन रही थी और कहीं केंद्र सरकार के गिरने की संभावनाओं पर बहस छिड़ी हुई थी। खूब शोरगुल का ऐसा माहौल था, जैसे बिन अध्यापक के किसी क्लास का होता है। यदि कोई किसी हटकर विषय में बोलता तो सभी चुप होकर उसे सुनने लगते, फिर आपस में बातचीत में मशगूल हो जाते। इसी बीच एक सेवानिवृत आंखों के डॉक्टर ने शिगूफा छोड़ा कि एक बड़े नेता ने हाल ही में चुनाव के मद्देनजर कुछ पत्रकारों को भोज दिया। इस दौरान उसने चुनिंदा लोगों को पांच-पांच लाख बांटे हैं। अब राशि कम थी या ज्यादा, बांटी या नहीं बांटी, इसे लेकर फिर बहस छिड़ गई। मेरे सामने एक कहानीकार भारतीजी बैठे थे। उन्होंने बताया कि वह चांद पर मानव के पहले कदम को लेकर कहानी लिख रहे हैं। कहानी में यह बताना चाहते हैं कि चांद तो देवता स्वरूप पूजे जाते हैं। जब वहां मानव पहुंचे तो देवता चांद ने विरोध क्यों नहीं किया। ऐसे में वह चांद के बारे में आर्यजी से जानकारी चाह रहे थे। वहीं आर्यसमाजी विचारधारा वाले आर्य चांद की शीतलता, चपलता, शांति, क्रोध के गुणों का वर्णन कर रहे थे। कहानीकार भारती जी को तो चांद के किसी गुण की लोककथा चाहिए थी। ऐसे में वह परेशान हो रहे थे। मैने उन्हें चांद की धृष्टता की एक कहानी सुना दी। ऐसी काल्पनिक कहानी देहरादून के चंद्रबनी में गौतम मंदिर की दीवार पर लिखी हुई थी, जिसे मैं कई साल पहले पढ़ चुका था। कहानी सतयुग से जोड़ी हुई थी। जब गौतम ऋषि मुर्गे की बांग की आवाज सुनकर सुबह चार बजे गंगा में नहाने जाते थे। उनकी पत्नी अहिल्या काफी सुंदर थी। उस पर इंद्र मोहित हो गया था। ऐसे में इंद्र ने अहिल्या को पाने की लिए चाल चली। इस काम में उसने चंद्रमा को साथ लिया। षडयंत्र के तहत चंद्रमा ने रात के दो बजे ही मुर्गे की आवाज निकाली। ऋषि ने समझा कि सुबह हो गई है और वह पैदल मार्ग से देहरादून से हरिद्वार गंगा नहाने चले गए। इस बीच इंद्र गौतम ऋषि के वेश में उनकी कुटिया पहुंचा। अहिल्या ने कहा कि यदि मेरे पति हो तो कुटिया में आओ, नहीं तो तुम्हें कुष्ट रोग हो जाएगा। कहावत है कि इंद्र के कुटिया में प्रवेश करते ही उसे कुष्ट रोग हो गया। वहीं, हरिद्वार में गंगा स्थान को पहुंचे गौतम ऋषि पर गंगा को तरस आया। उसने गौतम को बताया कि इंद्र तुमसे छल कर चुका है। आज से मैं तेरी कुटिया के पास ही प्रकट हो जाऊंगी। ऋषि स्नान के बाद वापस लौटे तो देखा कि कुटिया के पास पानी की जलधारा निकल रही है। ऋषि ने अहिल्या से पूछा कि उनकी अनुपस्थिति में कोई आया था। अहिल्या के कुछ बोलने से पहले ही उनकी बेटी अंजना ने बता दिया कि आपके वेश में कोई आया था। इस पर ऋषि ने अहिल्या को पत्थर होने का श्राप दिया। वहीं चुगली करने पर अहिल्या ने अंजना को कुंवारी मां बनने का श्राप दिया। ऋषि का गुस्सा थमा नहीं और उन्होंने कंधें पर रखी गीली धोती चांद पर दे मारी। तब से चांद पर दाग पड़ गया। क्या कहानी लिखी, किसी लेखक ने। हर एक वस्तु के अस्तित्व पर ही ऐसा खाका खींचा कि इस कल्पना पर अज्ञानतावश कोई भी विश्वास कर सकता है। 
कहानीकार मित्र उछल पड़े। उन्हें अपनी कहानी के तार मिल गए। कहने लगे कि अज्ञानी व अंधविश्वासी व्यक्ति देवता चांद पर किसी के पहुंचने की कल्पना नहीं कर सकता। ऐसे में जब पहली बार वहां मानव ने कदम रखा तो अंधविश्वासी का तर्क रहेगा कि उस समय चांद गौतम ऋषि की कुटिया में इंद्र का छलावा देखने में मशगूल था। वह इतना मस्त हो गया कि उसे यह अहसास तक नहीं हुआ कि किसी ने उसकी छाती पर पैर रखा है। उन्हें कहानी आगे बड़ाने का प्लाट मिल गया, लेकिन मेरा वहां बैठने का मकसद पूरा नहीं हो रहा था।
तभी एक पहलवान व उनका बेटा वहां पहुंचे। दोनों ही कुछ राजनीतिक लोगों से बहस में मशगूल हो गए। पहलवान कभी खुफिया पुलिस (एलआइयू) में थे। जनवादी विचारधारा के होने के कारण पुलिस में भी यूनियन गठित कर दी। तब एक साथ कई पुलिसवालों की नौकरी गई। इनमें पहलवान भी शामिल थे। बच्चे पालने में उन्हें काफी पापड़ बेलने पड़े। संयोग से एक संस्थान में नौकरी मिली, लेकिन वहां से भी बर्खास्त कर दिए गए। फिर जीवन भर मुकदमा लड़ते रहे। जब जीते तो नौकरी से सेवानिवृत्त हो गए। पहलवान त्यागी का बड़ा बेटा पिता की विचारों को आगे बड़ा रहा है। छोटा मुंबई में हीरो बनने गया था, पर अब सीरियल या भोजपुरी फिल्मों में आ जाता है।
पहलवान के बेटे ने बताया कि लोकसभा के चुनाव में उसने रंगकर्मी को खड़ा किया है। मैने उसे समझाया कि नौकरी से रिटायरमेंट के बाद क्यों उक्त रंगकर्मी का बुढा़पा खराब कर रहे हो। इस पर पहलवान का बेटा समझाने लगा कि रंगकर्मी बेहद ईमानदार है। हमारे पास अन्य की भांति न तो पैसा है और न ही संसाधन। हम तो पैदल ही प्रचार कर रहे हैं। सिर्फ एक गाड़ी की व्यवस्था की है। हमें पता है कि हम हार जाएंगे, लेकिन ईमानदार व्यक्ति को चुनाव लड़ाने का प्रयास तब तक जारी रहेगा, जब तक वह जीतता नहीं। उसने बताया कि मैने भी विधानसभा का चुनाव लड़ा था। प्रचार के लिए गाड़ी का किराया हजारों में बैठ रहा था। इस पर मैने पैंतीस हजार में पुरानी कार खरीदी। पेट्रोल तो मित्र भरा देते थे, लेकिन ड्राइवर सौ रुपये प्रतिदिन के हिसाब से रखा। अन्य लोग पांच सौ के साथ खाना व दारू दे रहे थे।  ऐसे में चालक भी भाग गया। फिर अपने बचपन के मित्र से कार चलवाई। चुनाव के बाद कार को उतनी ही रकम में बेच दिया, जितने में खरीदा था। सच में चुनाव लड़ने वालों के पास हर समस्या का तोड़ है। शाम होने लगी। बाहर बूंदाबांदी भी हो रही थी। इस पर मैं सबसे विदा लेकर घर की तरफ रवाना हो गया। वहीं इस काफी हाउस में बहस जारी थी, जो रात नौ बजे तक दुकान का शटर गिरने से पहले तक चलती रहनी थी।

 भानु बंगवाल

No comments:

Post a Comment