पिताजी की मौत के बाद जब क्रिया में बैठने की बारी आई तो तभी मुझे पता चला कि या तो सबसे बड़ा बेटा ही क्रिया में बैठता है या फिर छोटा। हम दो भाई हैं, ऐसे में मुझे ही क्रिया में बैठने का मौका मिला। जीवन व मरण के मौकों से लेकर अन्य तीज त्योहोर के लिए जो रसम व रिवाज मनुष्य ने बनाए हैं, उनका कहीं न कहीं वैज्ञानिक आधार भी है। जैसे दीवापली आती है, तो उससे पहले घर सजाने की तैयारी करते हैं। घर में रंग रोगन आदि करने के बहाने घर की सफाई हो जाती है। इस दिन का संबंध भी से होता है। दीपक जलाए जाते हैं और आतिशबाजी होती है। साथ ही सर्दी भी दस्तक दे चुकी होती है। दूसरे त्योहार होली का संबंध भी आग से ही होता है। इस दिन होली जलाई जाती है, रंग खेला जाता है। सर्दी चली जाती है और गर्मी शुरू हो जाती है। होली जलाने के बहाने घर का कूड़ा कचरा भी आग के हवाले कर दिया जाता है। इस बहाने भी घर की सफाई होती है। साथ ही सर्द कपड़े पहनने बंद हो जाते हैं। हरएक पर रंग मला जाता है। सर्दी में जो कई दिन से नहाने से बचता होगा, उसे भी रंगने के बाद मजबूरन नहाना पड़ता है। इस बहाने शरीर की सफाई भी हो जाती है। यानी आग से संबंधित एक त्योहार गरमी लेकर आता है तो दूसरा सर्दी।
किसी के मरने के बाद जो परंपराएं हमने बनाई हैं, इसमें मुझे पहली नजर में यही लगा कि इसे निभाने से व्यक्ति खुद को तन व मन से शुद्ध व मजबूत करते हैं। विपरीत परिस्थितियों में खुद को ढालने के लिए ही ऐसी परंपराएं बनी हैं। साथ ही इस दुनियां से विदा हुए व्यक्ति को लंबे समय तक याद रखने का भी तरीका यह हो सकता है। पिता या माता कि मृत्यु के बाद क्रिया में बैठना भी आसान नहीं है। सबसे कठिन तो पिता की मौत पर है। तेरहवीं तक क्रिया में बैठा व्यक्ति जमीन पर सोता है। अपने लिए स्वयं भोजन तैयार करता है। माता की मौत पर मीठा व दूध का सेवन नहीं करता और पिता की मौत पर तेरहवीं तक नमक का त्याग करना पड़ता है। आप तेरह दिन तक मीठा न खाओ तो चल जाएगा, लेकिन बगैर नमक के बनाई गई दाल या सब्जी की कल्पना ही काफी पीड़ादायक होती है। उस पर यह तोड़ भी नहीं कि नमक की जगह मक्खन का ही सेवन कर लो। यदि मक्खन भी खाना है तो वह भी ऐसा होगा, जिसमें नमक न हो। यानी हर चीज मीठी तो खा सकते हो, लेकिन नमक भूलकर भी नहीं खाना है। शुरूआत में मैं मीठा भोजन बनाता रहा, दो ही दिन में मीठे से मुझे नफरत हो गई, फिर फीका ही खाया।
मौत पर सिर मुंडवाया, तो किसी से मुलाकात के दौरान पहले मुझे किसी को यह बताने की आवश्यकता नहीं पड़ी कि मेरे घर में किसी की मौत हो रखी है। देखने वाले ने ही पहले पूछा क्या और कैसे हुआ। तब मौत के दिन की घटना की पूरी कहानी दोहरानी पड़ती थी। तेहरवीं से तीन या चार दिन पहले तक पीपल पूजा की जाती है। सही तो है कि जो पीपल का वृक्ष 24 घंटे प्राणवायु आक्सीजन छोड़ता है, उसकी पूजा भी इस संस्कार से जुड़ी है।
बात तेहरवीं तक ही सीमित नहीं रही। वार्षिक श्राद्ध होने तक हर महीने या तीन महीने के अंतराल में कुंभदान करना पड़ा। कुंभदान के दिन ही दाढ़ी पर घोटा लगाता था। जब तीन महीने के अंतराल में मैने कुंभदान किए तो तब तक दाढ़ी भी इतनी बड़ी हो जाती थी, जैसे बाबा रामदेव की दाढ़ी हो। एक परंपरा और है, जो गढ़वाल में हर व्यक्ति को निभानी पड़ती है। यह परंपरा है लिंगवास की। यदि कोई गढ़वाल में ही क्रियाक्रम संस्कार कर रहा है तो वह तेहरवीं के दिन यह परंपरा निभाता है। अमूमन शहर में बसे लोग मौते के एक माह बाद इस परंपरा को निभाते हैं। इसके तहत अंतिंम संस्कार के वक्त गंगा या घाट पर अस्थी विसर्जन के दौरान एक छोटा सा गोल पत्थर क्रिया में बैठने वाला उठाता है। इस पत्थर को मूल गांव में पित्रों के नाम से बनाए गए छोटे से मंदिर में स्थापित किया जाता है। यह मंदिर कहने को मंदिर होता है। यह गांव से बाहर एक वीरान स्थान पर छोटे-छोटे पत्थर की स्लेट का एक छोटा सा बाक्सनुमा घर सा होता है। इसमें हर मरने वालों के नाम पर पत्थर रखे होते हैं। इस स्थान को पितृ लिंगवास कहते हैं। मान्यता है कि भगवान को पत्थरों के रूप में देखा और पूजा जाता है। इसलिए इंसान को भी मरने के बाद पत्थर के रूप में स्थापित कर दिया जाता है। उन्हें भी पत्थरों के रूप में ही देखते हैं। या यूं कहें कि मरने वाले को ज्यादा समय तक याद रखने की यह परंपरा है।
हमारे गांव से बाहर दूसरे गांव में जिस स्थान पर पितृ लिंगवास बनाया गया है, वह स्थान काफी वीरान है। वहां तक पहुंचने में खड़ी चढ़ाई चढ़ते फेफड़े भी जवाब देने लगते हैं। उसी स्थान पर कन्याएं भी जिमाई जाती हैं। यह सारा काम पुरुष ही करते हैं। वर्ष 2000 में जब मैं पिता की मौत के बाद लिंगवास की परंपरा निभाने उस वीराने में गया तो मेरे मन में यही विचार आया कि पत्थर रखने की परंपरा क्यों बनाई गई है। यदि किसी को याद करना है तो इस वीराने में कोई दूसरा ऐसा काम क्यों नहीं किया जाता, जो समाज के लिए फायदेमंद हो। पर परंपरा है, जो एक बार शुरू होती है तो लंबे समय तक होती चली आती है। इसे तोड़ने के मतलब परिवार व समाज से बगावत। अब मुझे इस विचार का जवाब मिलने लगा है। पर्वतीय क्षेत्रों में विभिन्न संगठन जल, जंगल व जमीन के मुद्दे पर जागरूक हो रहे हैं। मैती संगठन की पहल पर विवाह के खुशी के मौके पर वर-वधू से यादगार के लिए पौधारोपण कराया जा रहा है। बात अब विवाह तक ही नहीं रही। हैस्को संस्था के संस्थापक एवं पदमश्री डॉ अनिल जोशी ने देहरादून के शुक्लापुर गांव में मृत्यु के बाद जीवन को सहेजने की अनूठी पंरपरा की शुरूआत की है। क्षेत्रवासी अपने प्रियजन की मौत पर छोटी आसन नदी के किनारे बने शमशान घाट में अंतिम संस्कार के बाद पौधे रोपते हैं। साथ ही चिता की राख खाद के रूप में इन पौध पर डाली जाती है। यह तो एक शुरूआत है। वह दिन दूर नहीं, जब पितृवास में लिंगवास (पत्थर रखने) की परंपपरा में बदलाव आएगा और पत्थर स्थापित करने के साथ ही वीराने में पौधे रोपे जाने लगेंगे। फिर चारों ओर हरे भरे जंगल होंगे।
भानु बंगवाल
किसी के मरने के बाद जो परंपराएं हमने बनाई हैं, इसमें मुझे पहली नजर में यही लगा कि इसे निभाने से व्यक्ति खुद को तन व मन से शुद्ध व मजबूत करते हैं। विपरीत परिस्थितियों में खुद को ढालने के लिए ही ऐसी परंपराएं बनी हैं। साथ ही इस दुनियां से विदा हुए व्यक्ति को लंबे समय तक याद रखने का भी तरीका यह हो सकता है। पिता या माता कि मृत्यु के बाद क्रिया में बैठना भी आसान नहीं है। सबसे कठिन तो पिता की मौत पर है। तेरहवीं तक क्रिया में बैठा व्यक्ति जमीन पर सोता है। अपने लिए स्वयं भोजन तैयार करता है। माता की मौत पर मीठा व दूध का सेवन नहीं करता और पिता की मौत पर तेरहवीं तक नमक का त्याग करना पड़ता है। आप तेरह दिन तक मीठा न खाओ तो चल जाएगा, लेकिन बगैर नमक के बनाई गई दाल या सब्जी की कल्पना ही काफी पीड़ादायक होती है। उस पर यह तोड़ भी नहीं कि नमक की जगह मक्खन का ही सेवन कर लो। यदि मक्खन भी खाना है तो वह भी ऐसा होगा, जिसमें नमक न हो। यानी हर चीज मीठी तो खा सकते हो, लेकिन नमक भूलकर भी नहीं खाना है। शुरूआत में मैं मीठा भोजन बनाता रहा, दो ही दिन में मीठे से मुझे नफरत हो गई, फिर फीका ही खाया।
मौत पर सिर मुंडवाया, तो किसी से मुलाकात के दौरान पहले मुझे किसी को यह बताने की आवश्यकता नहीं पड़ी कि मेरे घर में किसी की मौत हो रखी है। देखने वाले ने ही पहले पूछा क्या और कैसे हुआ। तब मौत के दिन की घटना की पूरी कहानी दोहरानी पड़ती थी। तेहरवीं से तीन या चार दिन पहले तक पीपल पूजा की जाती है। सही तो है कि जो पीपल का वृक्ष 24 घंटे प्राणवायु आक्सीजन छोड़ता है, उसकी पूजा भी इस संस्कार से जुड़ी है।
बात तेहरवीं तक ही सीमित नहीं रही। वार्षिक श्राद्ध होने तक हर महीने या तीन महीने के अंतराल में कुंभदान करना पड़ा। कुंभदान के दिन ही दाढ़ी पर घोटा लगाता था। जब तीन महीने के अंतराल में मैने कुंभदान किए तो तब तक दाढ़ी भी इतनी बड़ी हो जाती थी, जैसे बाबा रामदेव की दाढ़ी हो। एक परंपरा और है, जो गढ़वाल में हर व्यक्ति को निभानी पड़ती है। यह परंपरा है लिंगवास की। यदि कोई गढ़वाल में ही क्रियाक्रम संस्कार कर रहा है तो वह तेहरवीं के दिन यह परंपरा निभाता है। अमूमन शहर में बसे लोग मौते के एक माह बाद इस परंपरा को निभाते हैं। इसके तहत अंतिंम संस्कार के वक्त गंगा या घाट पर अस्थी विसर्जन के दौरान एक छोटा सा गोल पत्थर क्रिया में बैठने वाला उठाता है। इस पत्थर को मूल गांव में पित्रों के नाम से बनाए गए छोटे से मंदिर में स्थापित किया जाता है। यह मंदिर कहने को मंदिर होता है। यह गांव से बाहर एक वीरान स्थान पर छोटे-छोटे पत्थर की स्लेट का एक छोटा सा बाक्सनुमा घर सा होता है। इसमें हर मरने वालों के नाम पर पत्थर रखे होते हैं। इस स्थान को पितृ लिंगवास कहते हैं। मान्यता है कि भगवान को पत्थरों के रूप में देखा और पूजा जाता है। इसलिए इंसान को भी मरने के बाद पत्थर के रूप में स्थापित कर दिया जाता है। उन्हें भी पत्थरों के रूप में ही देखते हैं। या यूं कहें कि मरने वाले को ज्यादा समय तक याद रखने की यह परंपरा है।
हमारे गांव से बाहर दूसरे गांव में जिस स्थान पर पितृ लिंगवास बनाया गया है, वह स्थान काफी वीरान है। वहां तक पहुंचने में खड़ी चढ़ाई चढ़ते फेफड़े भी जवाब देने लगते हैं। उसी स्थान पर कन्याएं भी जिमाई जाती हैं। यह सारा काम पुरुष ही करते हैं। वर्ष 2000 में जब मैं पिता की मौत के बाद लिंगवास की परंपरा निभाने उस वीराने में गया तो मेरे मन में यही विचार आया कि पत्थर रखने की परंपरा क्यों बनाई गई है। यदि किसी को याद करना है तो इस वीराने में कोई दूसरा ऐसा काम क्यों नहीं किया जाता, जो समाज के लिए फायदेमंद हो। पर परंपरा है, जो एक बार शुरू होती है तो लंबे समय तक होती चली आती है। इसे तोड़ने के मतलब परिवार व समाज से बगावत। अब मुझे इस विचार का जवाब मिलने लगा है। पर्वतीय क्षेत्रों में विभिन्न संगठन जल, जंगल व जमीन के मुद्दे पर जागरूक हो रहे हैं। मैती संगठन की पहल पर विवाह के खुशी के मौके पर वर-वधू से यादगार के लिए पौधारोपण कराया जा रहा है। बात अब विवाह तक ही नहीं रही। हैस्को संस्था के संस्थापक एवं पदमश्री डॉ अनिल जोशी ने देहरादून के शुक्लापुर गांव में मृत्यु के बाद जीवन को सहेजने की अनूठी पंरपरा की शुरूआत की है। क्षेत्रवासी अपने प्रियजन की मौत पर छोटी आसन नदी के किनारे बने शमशान घाट में अंतिम संस्कार के बाद पौधे रोपते हैं। साथ ही चिता की राख खाद के रूप में इन पौध पर डाली जाती है। यह तो एक शुरूआत है। वह दिन दूर नहीं, जब पितृवास में लिंगवास (पत्थर रखने) की परंपपरा में बदलाव आएगा और पत्थर स्थापित करने के साथ ही वीराने में पौधे रोपे जाने लगेंगे। फिर चारों ओर हरे भरे जंगल होंगे।
भानु बंगवाल
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