Saturday, 29 September 2012

लड़ना है भाई, ये तो लंबी लड़ाई है......

विकास के नाम पर जिस पहाड़ की जनता हमेशा से ही छली जाती रही, अलग राज्य उत्तराखंड बनने के बाद भी इस पर अंकुश नहीं लग सका। लगता भी कैसे। वर्तमान में तो यह राज्य उन लोगों के लिए रानीतिक अखाड़ा बन गया है, जिनका राज्य बनने से पहले राज्य आंदोलन में कोई योगदान तक नहीं रहा। राज्य बनने के बाद सब कुछ तो वही है, जो पहले था। यानी पहा़ड़ों से पलायन, जर्जर भवनों में चल रहे स्कूल, स्कूल हैं तो मास्टर नहीं, बिजली नहीं पहुंचने से अंधेरे में डूबे गांव, पेयजल को तरसते ग्रामीण। गांवों को सड़कों का इंतजार, अस्पतालों में डॉक्टर का इंतजार। राज्य बनने के बाद एक चीज यहां ज्यादा बढ़ी है, वो है बंदरबांट। खुशी का मौका हो या गम का, बंदरबांट करने वाले पीछे नहीं हैं। वे तो हर जगह अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर ही लेते हैं और ठगी रह जाती है भोली भाली जनता।
उत्तराखंड राज्य के गठन को समझने के लिए सबसे पहले हमें राज्य आंदोलन की लड़ाई को समझना पड़ेगा। अलग राज्य उत्तराखंड की मांग पहले तक सीपीआइ और क्षेत्रीय दल में उत्तराखंड क्रांति दल उठाते रहे। वर्ष 94 में उत्तराखंड आंदोलन के प्रणेता व उत्तराखंड क्रांति दल के नेता इंद्रमणि बडौनी पौड़ी मंडल मुख्यालय में आमरण अनसन पर बैठे। उसी दौरान ओबीसी को आरंक्षण के खिलाफ राज्य में छात्रों ने आंदोलन शुरू कर दिया। दोनों ही आंदोलन गरमा रहे थे। तभी बडौनी को जबरन धरने से पुलिस ने उठा लिया और परिणामस्वरूप सभी जनपदों में आमरण अनशन पर बैठने वालों का तांता लग गया। तब आरक्षण के खिलाफ लड़ाई यूपी की तत्कालीन मुलायम सिंह यादव की सरकार और राज्य आंदोलन की लड़ाई केंद्र की कांग्रेस सरकार के खिलाफ चल रही थी। तब यह महसूस किया जाने लगा कि यदि अपने राज्य का गठन होगा तभी क्षेत्र की समस्याएं निपटेंगी। ऐसे में राज्य आंदोलन को लेकर ही सभी को मिलकर संघर्ष करना चाहिए। इस पर  अलग-अलग आंदोलन को एक झंडे के नीचे लाने के प्रयास हुए और उत्तराखंड सर्वदलीय संघर्ष समिति का गठन किया गया। विभिन्न समाजिक संगठन, कर्मचारी संगठन आदि ने समिति के नाम पर ऐतराज किया। उनका कहना था कि दल से लगता है कि यह समिति राजनीतिक दलों तक ही सीमित है। तब उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष सिमिति का गठन किया गया। इसमें कुछ समय तक भाजपा से जुड़े लोग जरूर शामिल हुए, लेकिन बाद में वे अलग से ही आंदोलन चलाते रहे। संघर्ष समिति में छात्र व मातृ शक्ति, अधिवक्ता, कर्मचारी संगठन, पूर्व सैनिक संगठन व राजनीतिक दलों से जुड़े लोग शामिल हो गए। तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद अलग राज्य के निर्माण में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह्मा राव की चुप्पी से गुस्साए कई कांग्रेसी भी इस समिति में शामिल हो गए।
आंदोलन गांधीवादी तरीके से चल रहा था, कि एक सितंबर 94 को खटीमा में पुलिस की गोली से तीन आंदोलनकारी शहीद हो गए। यह घाव भरे ही नहीं थे कि अगले ही दिन दो सितंबर 94 को मसूरी में धरना दे रहे लोगों पर फिर पुलिस की गोली चली। इस गोलीकांड में छह आंदोलनकारी व एक पुलिस उपाधीक्षक शहीद हुए। बस फिर क्या था देहरादून व मसूरी में कर्फ्यू लगा दिया गया। इससे पहले देहरादून की जनता ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के दौरान व अस्सी के दशक में छात्र राजनीति के दौरान ही कर्फ्यू देखे थे। ऋषिकेश से ऊपर पहाड़ की जनता को तब तक यह पता ही नहीं था कि कर्फ्यू किस चिड़िया का नाम है। आंदोलन कभी केंद्र सरकार के खिलाफ तो कभी यूपी की सरकार के खिलाफ डोल रहा था। आंदोलन को हवा देने से बौखलाकर तत्कालीन यूपी के मुख्यमंत्री ने दो क्षेत्रीय समाचार पत्रों के खिलाफ हल्ला बोल की घोषणा कर दी। आंदोलन से रंगकर्मी, लेखक, या कहें कि संस्कृति कर्मी भी जुड़ गए। उत्तेजक नारे शालीनता में बदल गए। पहले नारे लगते थे-, चार चव्वनी थाली में,----नाली में। बाद में नारों में इस तरह बदलाव आया कि -मौनी बाबा कुछ तो बोल, संसद में मुंह तो खोल। संस्कृति कर्मियों ने सांस्कृतिक मोर्चा का गठन किया। राज्य आंदोलन के गीत लीखे जाने लगे। इनमें- लड़ना है भाई ये तो लंबी लड़ाई है। या फिर-लड़के लेंगे, भिड़के लेंगे, छीन लेंगे उत्तराखंड। ये गीत गांव, गली, शहर व नुक्कड़ों में आंलोदनकारियों की जुबां में थे। राज्य का जूनून लोगों के दिमाग में इस कदर हावी था कि पहाड़ की हर पगडंडियों में महिलाओं की भीड़ नारे लगाती नजर आने लगी थी।
दो अक्टूबर 1994 को उत्तराखंड संयुक्त समिति ने दिल्ली में रैली का आयोजन किया था। मकसद केंद्र को ताकत दिखाना था। समूचे उत्तराखंड से एक अक्टूबर की रात को बसों में भरकर लोग दिल्ली को रवाना हो रहे थे। ऐसे आंदोलनकारियों को उत्तराखंड व यूपी की सीमा पर मुजफ्फरनगर में रोक दिया गया। सुबह होते-होते वहां गोलीकांड में चार आंदोलनकारी शहीद हो गए और कई लापता। हिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती की सुबह खून से रंग गई। दिल्ली में भी रैली में व्यवधान हो गया। मंच को कब्जाने को लेकर आंदोलनकारी भिड़ गए। या फिर असामाजिक तत्व अपनी चाल में कामयाब हो गए। इस घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप तीन अक्टूबर को समूचे उत्तराखंड में बवाल मच गया। आंदोलन भटकता नजर आने लगा। हिंसा व कर्फ्यू का दौर शुरू हो गया। बाद में माना गया कि करीब 44 लोग समूचे आंदोलन के दौरान शहीद हुए थे। पहाड़ के लोगों में कई ऐसे थे, जिन्होंने पहली बार कर्फ्यू शब्द सुना था। कई कर्फ्यू देखने गांव से शहर को निकल पड़े। ऐसी ही एक वृद्धा-कख च कर्फ्यू मि तैं भी दिखावा (कहां है कर्फ्यू, मुझे भी दिखाओ) कहती हुई जब घर से बाहर आई तो उस पर पुलिस का डंडा पड़ा। बेचारी हाथ तुड़वाकर घर बैठ गई। इससे पहले ग्रामीण बाघ के आतंक से डरते थे, लेकिन  उन्हें कर्फ्यू के आतंक का भी अहसास हो गया। हाथ से निकलते आंदोलन को वरिष्ठ लोगों ने किसी तरह काबू किया और फिर लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन तब तक चलता रहा, जब तक राज्य का गठन नहीं हो गया।
यहां यह भी बताना चाहूंगा कि वर्ष, 94 में जब हिंसा का दौर चला तो उस समय दशहरा की तैयारी चल रही थी। रामलीला मंचन के पंडाल लग चुके थे। रामलीलाओं का मंचन रोक दिया गया। रावण के पुतले बनाने का काम भी बीच में रोक दिया गया। अधूरे पुतलों को जलाने की बजाय उन्हें जल समाधी दी गई। दीपावली में अधिकांश लोगों ने न तो घरों में सजावट की और न ही आतिशबाजी की गई। हर घर में मातम था। तब हर उत्तराखंडी यही सवाल एक दूसरे से पूछने लगा कि- क्या रावण फिर से जिंदा हो गया है।  
 यहां की जनता का दुर्भाग्य यही रहा कि जो अलग राज्य के विरोधी थे, या फिर आंदोलन में जिनका योगदान नहीं था, राज्य गठन के बाद वे ही सत्ता की धुरी बन गए। उन्होंने ही सत्ता सुख भोगा। मेरी लाश पर बनेगा उत्तराखंड कहने वाले अलग राज्य के विरोधी रहे एनडी तिवारी भी इस राज्य के मुख्यमंत्री बने। वहीं राज्य आंदोलन में जरा सा भी योगदान न करने और जीवन भर राज्य से बाहर रहने के बाद विजय बहुगुणा वर्तमान में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बन बैठे। उत्तराखंड में परिवारवाद को बढ़ावा देते हुए उन्होंने लोकसभा चुनाव में अपने बेटे को उतारा। यूपी में कांग्रेस की राजनिति करने वाली उनकी बहन रीता बहुगुणा भी अपने लिए उत्तराखंड में राजनीति की जमीन तैयार कर रही है।
उधर, आंदोलन के दौरान केंद्र व राज्य से लड़ते-लड़ते क्षेत्रीय दल राज्य गठन के बाद भी लड़ना नहीं भूले। अब वे आपस में ही लड़कर अपनी ताकत खो चुके हैं। रानीतिक महत्वकांक्षा के चलते उनकी मुट्ठी खुल गई और कई संगठनों में बिखर गए। राज्य बना बंदरबांट का खेल भी चला। कोई आंदोलनकारी के नाम पर सरकारी मदद खा गया, तो कोई किसी अन्य तरीके से मलाई खा रहा है। इसके विपरीत पहाड़ में समस्याओं का पहाड़ पहले जैसा ही है। हाल ही में उत्तरकाशी व रुद्रप्रयाग जनपद में आपदा आई। बेघर हुए पीड़ितों की मदद तो नहीं हुई, लेकिन सरकारी तंत्र ने आपदा के नुकसान की ऐसी लिस्ट तैयार कर दी, जिसमें बंदरबांट निश्चित है। मसलन जहां नुकसान नहीं हुआ, वहां का भी बजट बना दिया गया। हालात बंदरबांट तक ही सीमित नहीं हैं। खटीमा, मसूरी, मुजफ्फनगर गोलीकांड के दोषियों को सजा दिलाने में भी आज तक कोई सार्थक प्रयास नहीं हुए। आज तक किसी दोषी को सजा तो नहीं हुई, लेकिन इसके उलट एक आंदोलनकारी को सजा जरूर हुई। इन हालातों के  चलते कई वर्षों तक राज्य आंदोलन की लड़ाई लड़ने वाले अब फिर से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का मन बना रहे हैं। फिर उनकी जुबां पर यही निकल रहा है कि-लड़ना है भाई ये तो लंबी लड़ाई है।
भानु बंगवाल   

No comments:

Post a Comment