शरारत भरा जो मौसम दून में अगस्त माह में होना चाहिए था, वह अब सितंबर माह में दिखने को मिल रहा है। हर साल जून के माह में बीस तारिख के बाद से बारिश होती थी, लेकिन इस बार पूरा जून का महिना सूखा चला गया। जुलाई में भी महीने के आखिर में बारिश होनी शुरू हुई। अगस्त माह में कहीं-धूप, कहीं बारिश होती रहती थी, लेकिन इस बार यह महीना पिछले सालों की जुलाई माह की तरह बीता। यानी अगस्त माह में देहरादून में लगातार बारिश होती रही। अब सितंबर आया तो मौसम की जो शरारत अगस्त माह में देखने को मिलती थी, वह सितंबर में देखने को मिली। कभी चमकता आसमान, फिर अचानक बादल की टुकड़ी आसमान में नजर आती है और बारिश होने लगती है। कभी घर से निकलो कि मौसम साफ है, लेकिन कुछ दूर चलने के बाद बारिश मिल जाएगी। आम व्यक्ति की तरह प्रकृति को भी देरी की आदत पड़ गई। यानी हम तो कई बार काम में देरी कर देते हैं, इस बार मौसम भी देरी की प्रवृति दोहरा रहा है। इस देरी की वजह से बीमारियां भी घर कर रही हैं। लोग वायरल की चपेट में आ रहे हैं। ऐसे में मैं भी इसके असर से नहीं बच पाया। तबीयत खराब होने पर दवा खाकर दो दिन से घर पर ही पसीना निकालकर बुखार को उतारने का प्रयास करने लगा।
सुबह मौसम साफ था। मुझे घर पर देखकर मेरी 85 वर्षीय माताजी मेरे कमरे में आई और कहने लगी कि घर पर है, तो मुझे बैंक ले चल। पिताजी की मृत्यु के बाद उनकी पेंशन माताजी को मिलती है। करीबन हर माह में एक बार मैं उसे पेंशन लेने के लिए बैंक ले जाता हूं। वहां से पेंशन की मामूली राशि निकालने के बाद वह कुछ राशि परिवार के बच्चों को बांटती है। बाकी राशि से अपने लिए बच्चों से समय-समय पर बिस्कुट, दवा आदि जो भी उसका खाने का मन करता है मंगवाती रहती है। मुझे कुछ हो गया तो मेरे बेटे कहां से अंतिम संस्कार का खर्च उठाएंगे, ना जाने क्यों उसे यह चिंता भी सताती रहती है। इसी के मद्देनजर वह मेरी बहनों के पास अपनी बचत में से कुछ रकम ऐसे समय के लिए भी जमा करती रहती है। कई बार मैं उसे समझा चुका हूं कि भविष्य किसने देखा। तू चिंता मत किया कर। जब पिताजी का स्वर्गवास हुआ तो उनके पास फूटी कौड़ी तक नहीं थी। फिर भी बेटों ने वह सारा धर्म, कर्म निभाया, जो निभाना चाहिए था। पर मां कहती है कि इस महंगाई में तुम यह सब कहां से करोगे।
साफ मौसम को देखकर मैंने सोचा कि मां को जितनी देरी में बैंक ले जाकर वापस लाउंगा, उतनी देरी के लिए गद्दों को छत में धूप लगाने के लिए रख देता हूं। तब तक बारिश होने की उम्मीद नहीं थी। लगातार बारिश व नमी से बिस्तर भी सीलने लगे थे। सो मैंने गद्दे व तकिये छत पर सुखाने के लिए रख दिए और माताजी को लेकर घर स् करीब दो किलोमीटर दूर स्थित राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान परिसर स्थित पंजाब नेशनल बैंक की शाखा में चला गया।
देरी की आदत जब प्रकृति ने भी पकड़ ली तो इंसान क्यों पीछे रहेगा। इसका अहसास मुझे बैंक पहुंचने पर हुआ। पता चला कि इस बार पेंशन भी लेट हो गई। कुछ देर बार एकाउंट पर चढ़ेगी। कुछ इंतजार के बाद पेंशन खातों में चढ़ गई। विदड्रॉल फार्म भरने के लिए भी लंबी लाइन लगी थी। उनमें कई पेंशनर भी शामिल थे। जो एक दूसरे से मिलकर पुरानी यादों को ताजा करने का प्रयास कर रहे थे। माताजी की स्थिति लाइन में खड़े होने की नहीं है, ऐसे में मैने उसे बैंच पर बिठा दिया और खुद लाइन पर खड़ा हो गया। बैंक में दो काउंटर थे। इनमें एक पर ही विदड्रॉल फार्म व चेक जमा हो रहे थे। दूसरे काउंटर पर एक महिला खाली बैठी थी। उक्त महिला को माताजी की उम्र पर भी दया नहीं आई और दूसरे काउंटर पर फार्म देने को कहा, जहां भीड़ थी। खैर बैंक का नियम था। माताजी को बैंच पर बैठाकर मैं उनकी जगह लाइन पर खड़ा हो गया। तभी उक्त महिला की परिचित एक युवती आई और उसने खुद ही उसका फार्म जमा कर लिया और टोकन दे दिया। यानी लाइन में खड़े होने में भी बेईमानी। टोकन मिलने पर पता चला कि बैंक में कैश खत्म हो चुका है। दो घंटे बाद ही लोगों को नकद भुगतान होगा। दो घंटे तक क्या करें। मौसम तो करवट बदल चुका था। लग रहा था कि कुछ ही देर में बारिश हो जाएगी। दस बजे से बैंक में सवा 11 बज चुके थे। तभी एक बैंक कर्मी ने बताया कि कई बार कैश आने में काफी देर हो जाती है। आज भी करीब तीन बजे से पहले पहुंचने की उम्मीद नहीं है। इस पर मैं माताजी को निकट ही बहन के घर ले गया। मैने कहा कि वह वहीं कुछ देर आराम करे, मैं तब तक घर की छत से कपड़े, गद्दे व तकिये उतारकर आता हूं। जल्दी, जल्दी कितनी करो, लेकिन देरी पर देरी हो रही थी। रास्ते में मेरे ऊपर कई बार हल्की बूंद गिरती तो मुझे यही डर सताता कि कहीं बारिश तेज हो गई तो बिस्तर का कबाड़ हो जाएगा। घर पहुंचा तो यह देखकर राहत मिली की मेरी भाभी छत से गद्दे उतार रही है।
भानु बंगवाल
सुबह मौसम साफ था। मुझे घर पर देखकर मेरी 85 वर्षीय माताजी मेरे कमरे में आई और कहने लगी कि घर पर है, तो मुझे बैंक ले चल। पिताजी की मृत्यु के बाद उनकी पेंशन माताजी को मिलती है। करीबन हर माह में एक बार मैं उसे पेंशन लेने के लिए बैंक ले जाता हूं। वहां से पेंशन की मामूली राशि निकालने के बाद वह कुछ राशि परिवार के बच्चों को बांटती है। बाकी राशि से अपने लिए बच्चों से समय-समय पर बिस्कुट, दवा आदि जो भी उसका खाने का मन करता है मंगवाती रहती है। मुझे कुछ हो गया तो मेरे बेटे कहां से अंतिम संस्कार का खर्च उठाएंगे, ना जाने क्यों उसे यह चिंता भी सताती रहती है। इसी के मद्देनजर वह मेरी बहनों के पास अपनी बचत में से कुछ रकम ऐसे समय के लिए भी जमा करती रहती है। कई बार मैं उसे समझा चुका हूं कि भविष्य किसने देखा। तू चिंता मत किया कर। जब पिताजी का स्वर्गवास हुआ तो उनके पास फूटी कौड़ी तक नहीं थी। फिर भी बेटों ने वह सारा धर्म, कर्म निभाया, जो निभाना चाहिए था। पर मां कहती है कि इस महंगाई में तुम यह सब कहां से करोगे।
साफ मौसम को देखकर मैंने सोचा कि मां को जितनी देरी में बैंक ले जाकर वापस लाउंगा, उतनी देरी के लिए गद्दों को छत में धूप लगाने के लिए रख देता हूं। तब तक बारिश होने की उम्मीद नहीं थी। लगातार बारिश व नमी से बिस्तर भी सीलने लगे थे। सो मैंने गद्दे व तकिये छत पर सुखाने के लिए रख दिए और माताजी को लेकर घर स् करीब दो किलोमीटर दूर स्थित राष्ट्रीय दृष्टिबाधितार्थ संस्थान परिसर स्थित पंजाब नेशनल बैंक की शाखा में चला गया।
देरी की आदत जब प्रकृति ने भी पकड़ ली तो इंसान क्यों पीछे रहेगा। इसका अहसास मुझे बैंक पहुंचने पर हुआ। पता चला कि इस बार पेंशन भी लेट हो गई। कुछ देर बार एकाउंट पर चढ़ेगी। कुछ इंतजार के बाद पेंशन खातों में चढ़ गई। विदड्रॉल फार्म भरने के लिए भी लंबी लाइन लगी थी। उनमें कई पेंशनर भी शामिल थे। जो एक दूसरे से मिलकर पुरानी यादों को ताजा करने का प्रयास कर रहे थे। माताजी की स्थिति लाइन में खड़े होने की नहीं है, ऐसे में मैने उसे बैंच पर बिठा दिया और खुद लाइन पर खड़ा हो गया। बैंक में दो काउंटर थे। इनमें एक पर ही विदड्रॉल फार्म व चेक जमा हो रहे थे। दूसरे काउंटर पर एक महिला खाली बैठी थी। उक्त महिला को माताजी की उम्र पर भी दया नहीं आई और दूसरे काउंटर पर फार्म देने को कहा, जहां भीड़ थी। खैर बैंक का नियम था। माताजी को बैंच पर बैठाकर मैं उनकी जगह लाइन पर खड़ा हो गया। तभी उक्त महिला की परिचित एक युवती आई और उसने खुद ही उसका फार्म जमा कर लिया और टोकन दे दिया। यानी लाइन में खड़े होने में भी बेईमानी। टोकन मिलने पर पता चला कि बैंक में कैश खत्म हो चुका है। दो घंटे बाद ही लोगों को नकद भुगतान होगा। दो घंटे तक क्या करें। मौसम तो करवट बदल चुका था। लग रहा था कि कुछ ही देर में बारिश हो जाएगी। दस बजे से बैंक में सवा 11 बज चुके थे। तभी एक बैंक कर्मी ने बताया कि कई बार कैश आने में काफी देर हो जाती है। आज भी करीब तीन बजे से पहले पहुंचने की उम्मीद नहीं है। इस पर मैं माताजी को निकट ही बहन के घर ले गया। मैने कहा कि वह वहीं कुछ देर आराम करे, मैं तब तक घर की छत से कपड़े, गद्दे व तकिये उतारकर आता हूं। जल्दी, जल्दी कितनी करो, लेकिन देरी पर देरी हो रही थी। रास्ते में मेरे ऊपर कई बार हल्की बूंद गिरती तो मुझे यही डर सताता कि कहीं बारिश तेज हो गई तो बिस्तर का कबाड़ हो जाएगा। घर पहुंचा तो यह देखकर राहत मिली की मेरी भाभी छत से गद्दे उतार रही है।
भानु बंगवाल
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